(गत ब्लॉगसे आगेका)
और दूसरोंके हितके लिये ही काम करेंगे,
तो ये आदि-अन्तवाला नहीं रहेगा,
हमारे लिये आदि-अन्त है ही नहीं,
क्योंकि हम तो निरन्तर करते हैं,
दूसरोंके लिये ही करते हैं । उसमें भी करनेकी क्रियाका आदि और अन्त तो होगा । आदि और अन्त तो होगा ही, दूसरोंके
लिये करनेमें भी; परन्तु ‘सर्वभूतहिते रताः’ प्राणिमात्रके
हितमें जो रति है उसका आदि और अन्त नहीं होता है । क्रिया कुछ भी करो,
उसका आदि और अन्त होगा,
पर केवल दूसरोंके हितकी भावना है उसका क्या आदि और अन्त होगा, बताओ । अनन्त
होगा इसका फल ! कल्याण होगा । इतनी विलक्षण बात है !
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥
(गीता
१८ । ४८)
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ।
(गीता १८ । ६०)
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां
येन
सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
(गीता
१८ । ४६)
केवल अपने कर्मोंसे पूजन करना है भगवान्का । सबकी सेवा करनी है,
हमारे लिये कुछ नहीं करना है । तो इसके लिये कुछ भी करनेकी जरूरत
नहीं है । इससे इसका कल्याण हो जायगा । इसमें एक मार्मिक बात है,
आप ध्यान दें, गहरी बात है‒यह स्वयं भगवान्का अंश है और भगवान् है सच्चिदानन्द,
सत्-चित्-आनन्द स्वरूप । ‘ईस्वर अल
जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख ससी ॥’
ध्यान देना उस चेतनका अंश है ये । यह चेतन है,
शुद्ध है, सहज सुखराशि है । इसके लिये कुछ भी करनेकी जरूरत नहीं है । फिर
सुनो‒‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥’
तो करना क्या रहा इसके बाकी ! सहज सुखराशि है । करनेमें जितना
ये प्राप्त करना चाहेगा कि मैं प्राप्त कर लूँगा तो वह आदि और अन्तवाला होगा और जन्म-मरण
देनेवाला होगा । शुभ हो चाहे अशुभ हो, कोई काम हो । यह चेतन अमल सहज सुख राशि है और सत् स्वरूप है,
उसमें कोई क्रिया नहीं है । स्वतःसिद्ध है,
शान्तस्वरूप । इसके लिये करना है ही नहीं । करनेकी उसपर जिम्मेवारी
नहीं है । करनेकी जिम्मेवारी दो-पर रहती है, एक
तो वह जो कुछ कर सकता है तो करनेकी जिम्मवारी होती है । एक जिनके कुछ चाहिये तो जिम्मेवारी
रहती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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