(गत ब्लॉगसे आगेका)
भजन करो, जप
करो, कीर्तन करो, ध्यान
करो, समाधि करो । सब-की-सब ही करनी केवल दुनियाके हितके
लिये ‘सर्वभूतहिते
रताः’, प्राणिमात्रके हितमें प्रीति होनी चाहिये भीतरसे
। इसलिये सब काम करना है । तो
ये कर्मोंका प्रवाह सब-का-सब संसारकी तरफ हो जायगा । आपका चेतन आनन्द-स्वरूप स्वतःसिद्ध
रह जायगा; क्योंकि कर्मका सब प्रवाह संसारकी तरफ हुआ । अपनी तरफ कर्मोंका प्रवाह करता है तब बन्धन होता है ।
मुक्ति स्वतःसिद्ध है । देखो ! एक सिद्धान्त बताता हूँ । दो
बात है उसमें, मुक्ति ‘बद्ध’ की होती है और मुक्ति ‘मुक्त’ की होती है । ध्यान देना
! जो स्वरूपसे बद्ध हो, उसकी मुक्ति नहीं हो सकती । समझे ! स्वरूपसे बद्धकी कैसे मुक्ति
हो जायगी ? वह बन्धनसे अलग कैसे हो जायगा और जिसके बन्धन है ही नहीं तो
मुक्ति कैसे होगी ? तो दूसरी चीजको अपनी मानी, यही
बन्धन हुआ और दूसरी चीजको अपनी नहीं मानी तो मुक्ति हो गयी । तो मुक्ति मुक्त पुरुषकी होती है और मुक्ति ‘बद्ध’ की होती
है । ‘बद्ध’ वही होता है, जो दूजी चीजको ले लेता है । दूजी चीजको दे दी तो मुक्ति हो गयी
। तो मुक्ति ‘मुक्त’ की भी नहीं होती है और ‘बद्ध’
की भी नहीं होती । वास्तवमें ‘बद्ध’ की होती है और ‘मुक्त’ की
होती है । ठीक है न ?
बन्धन क्या है ? कि
उस चीजको अपनी मान ली और अपने लिये मान ली‒यही है बन्धन ! और अपनी नहीं, अपने
लिये नहीं‒यही है मुक्ति ! भक्ति क्या है ? भगवान्के सम्मुख न होना अभक्त हुआ । भगवान्से विभक्त हुआ तो
अभक्त हुआ और भगवान्के सम्मुख हुआ तो भक्ति हुई । तो भगवान्का
हूँ और भगवान्का भजन करना है ऐसा भाव होते ही वह भक्त हो गया । भक्ति और मुक्तिके
लिये करना कुछ नहीं है । संसार-शरीर मैं नहीं, संसार
मेरा नहीं । मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं । बेड़ा पार । संसार मैं नहीं, संसार
मेरा नहीं यह हुई मुक्ति. और भगवान् मेरे, मैं
भगवान्का हूँ‒यह है भक्ति । ‘कृतकृत्यश्च भारत’
कुछ करना बाकी नहीं रहा । सर्वथा पूर्ण-का-पूर्ण ! कितनी श्रेष्ठ
बात है ! यह सार बात है ।
नारायण ! नारायण !!
नारायण !!!
‒‘भगवत्प्राप्ति सहज है’ पुस्तकसे
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भगवान्के साथ हमारा सम्बन्ध स्वतन्त्रतासे,
स्वाभाविक हैं । सांसारिक पदार्थोंके साथ हमारा सम्बन्ध स्वाभाविक
नहीं है । मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदि सब पदार्थ निरन्तर बहे जा रहे हैं । उनके साथ हमारा
कोई सम्बन्ध नहीं है । भगवान् ही हमारे हैं । बच्चेमें कोई योग्यता,
विद्वत्ता, शूरवीरता आदि नहीं होती,
केवल उसमें ‘माँ मेरी है’‒ऐसा माँमें मेरापन होता है । इस मेरापनमें बड़ी भारी शक्ति है,
जो भगवानको भी खींच सकती है ।
(‒‘लक्ष्य अब
दूर नहीं’ पुस्तकसे)
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