कर्म दो तरहके होते हैं‒(१) जन्मारम्भक कर्म और (२) भोगदायक
कर्म । जिन कर्मोंसे ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होता है,
वे ‘जन्मारम्भक कर्म’ कहलाते हैं और जिन कर्मोंसे सुख-दुःखका भोग होता है वे ‘भोगदायक कर्म’ कहलाते हैं । भोगदायक कर्म अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको पैदा
करते हैं, जिसको गीतामें अनिष्ट,
इष्ट और मिश्र नामसे कहा गया है (१८ । १२) ।
गहरी दृष्टिसे देखा जाय तो मात्र कर्म भोगदायक होते हैं अर्थात्
जन्मारम्भक कर्मोंसे भी भोग होता है और भोगदायक कर्मोंसे भी भोग होता है । जैसे,
जिसका उत्तम कुलमें जन्म होता है,
उसका आदर होता है, सत्कार होता है और जिसका नीच कुलमें जन्म
होता है, उसका निरादर होता है, तिरस्कार होता है । ऐसे ही अनुकूल परिस्थितिवालेका
आदर होता है और प्रतिकूल परिस्थितिवालेका निरादर होता है । तात्पर्य है कि आदर और निरादररूपसे
भोग तो जन्मारम्भक और भोगदायक‒दोनों कर्मोंका होता है । परन्तु जन्मारम्भक कर्मोंसे
जो जन्म होता है, उसमें आदर-निरादररूप भोग गौण होता है;
क्योंकि आदर-निरादर कभी-कभी हुआ करते हैं,
हरदम नहीं हुआ करते और भोगदायक कर्मोंसे जो अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थिति आती है, उसमें परिस्थितिका भोग मुख्य होता है;
क्योंकि परिस्थिति हरदम आती रहती है ।
भोगदायक कर्मोंका सदुपयोग-दुरुपयोग करनेमें मनुष्य-मात्र
स्वतन्त्र है अर्थात् वह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिसे सुखी-दुःखी भी हो सकता है और
उसको साधन-सामग्री भी बना सकता है । जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिसे सुखी-दुःखी होते
हैं, वे मूर्ख होते हैं, और जो
उसको साधन-सामग्री बनाते हैं, वे बुद्धिमान् साधक होते हैं । कारण कि मनुष्यजन्म परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मिला है;
अतः इसमें जो भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है,
वह सब साधन-सामग्री ही है ।
अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिको साधन-सामग्री बनाना
क्या है ? अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो उसको दूसरोंकी सेवामें, दूसरोंके
सुख-आराममें लगा दे और प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छाका त्याग कर दे । दूसरोंकी
सेवा करना और सुखेच्छाका त्याग करना‒ये दोनों साधन हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे |