(गत ब्लॉगसे आगेका)
(२)
शास्त्रोंमें आता है कि पुण्योंकी अधिकता होनेसे जीव स्वर्गमें
जाता है और पापोंकी अधिकता होनेसे नरकोंमें जाता है तथा पुण्य-पाप समान होनेसे मनुष्य
बनता है । इस दृष्टिसे किसी भी वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिका कोई भी मनुष्य सर्वथा पुण्यात्मा या पापात्मा नहीं
हो सकता । पुण्य-पाप समान होनेपर जो मनुष्य बनता है,
उसमें भी अगर देखा जाय तो पुण्य-पापोंका तारतम्य रहता है अर्थात्
किसीके पुण्य अधिक होते हैं और किसीके पाप अधिक होते हैं ।[1]
ऐसे ही गुणोंका विभाग भी है । कुल मिलाकर सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले
ऊर्ध्वलोकमें जाते हैं । रजोगुणकी प्रधानतावाले मध्यलोक अर्थात् मनुष्यलोकमें आते हैं
और तमोगुणकी प्रधानतावाले अधोगतिमें जाते हैं । इन तीनोंमें भी गुणोंके तारतम्यसे अनेक
तरहके भेद होते हैं ।
सत्त्वगुणकी प्रधानतासे ब्राह्मण,
रजोगुणकी प्रधानता और सत्त्वगुणकी गौणतासे क्षत्रिय,
रजोगुणकी प्रधानता और तमोगुणकी गौणतासे वैश्य तथा तमोगुणकी प्रधानतासे
शूद्र होता है । यह तो सामान्य रीतिसे गुणोंकी बात बतायी । अब इनके अवान्तर तारतम्यका
विचार करते हैं‒रजोगुण-प्रधान मनुष्योंमें सत्त्वगुणकी प्रधानतावाले ब्राह्मण हुए ।
इन ब्राह्मणोंमें भी जन्मके भेदसे ऊँच-नीच ब्राह्मण माने जाते हैं और परिस्थितिरूपसे
कर्मोंका फल भी कई तरहका आता है अर्थात् सब ब्राह्मणोंकी एक समान अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति
नहीं आती । इस दृष्टिसे ब्राह्मणयोनिमें भी तीनों गुण मानने पड़ेंगे । ऐसे ही क्षत्रिय,
वैश्य और शूद्र भी जन्मसे ऊँच-नीच माने जाते हैं और अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थिति भी कई तरहकी आती है । इसलिये गीतामें कहा गया है
कि तीनों लोकोंमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो तीनों
गुणोंसे रहित हो (१८ । ४०) ।
अब जो मनुष्येतर योनिवाले पशु-पक्षी आदि हैं,
उनमें भी ऊँच-नीच माने जाते हैं;
जैसे गाय आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं और कुत्ता,
गधा, सूअर आदि नीच माने जाते हैं । कबूतर आदि श्रेष्ठ माने जाते हैं
और कौआ, चील आदि नीच माने जाते हैं । इन सबको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति
भी एक समान नहीं मिलती । तात्पर्य है कि ऊर्ध्वगति,
मध्यगति और अधोगतिवालोमें भी कई तरहके जाति-भेद और परिस्थिति-भेद
होते हैं ।
(गीता १८ । ४१ की
व्याख्यासे)
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
[1] जैसे परीक्षामें
अनेक विषय होते हैं और उन विषयोंमेंसे किसी विषयमें कम और किसी विषयमें अधिक नम्बर
मिलते हैं । उन सभी विषयोंके नम्बरोंको मिलाकर कुल जितने नम्बर आते हैं,
उनसे परीक्षाफल तैयार होता है । ऐसे ही प्रत्येक मनुष्यके किसी
विषयमें पुण्य अधिक होते हैं और किसी विषयमें पाप अधिक होते हैं और कुल मिलाकर जितने
पुण्य-पाप होते हैं, उसके अनुसार उसको
जन्म मिलता है । अगर अलग-अलग विषयोंमें सबके पुण्य-पाप समान होते तो सभीको बराबर अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थिति मिलती पर ऐसा होता नहीं । इसलिये सभीके पुण्य-पापोंमें अनेक प्रकारका तारतम्य
रहता है । यही बात सत्त्वादि गुणोंके विषयमें भी समझनी चाहिये ।
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