(गत ब्लॉगसे आगेका)
ऊँच-नीच योनियोंमें जितने भी शरीर मिलते हैं,
वे सब गुण और कर्मके अनुसार ही मिलते हैं ।[*] गुण और कर्मके अनुसार ही मनुष्यका
जन्म होता है; इसलिये मनुष्यकी जाति जन्मसे ही मानी जाती है । अतः स्थूलशरीरकी दृष्टिसे विवाह, भोजन
आदि कर्म जन्मकी प्रधानतासे ही करने चाहिये अर्थात् अपनी जाति या वर्णके अनुसार ही
भोजन, विवाह आदि कर्म होने चाहिये ।
दूसरी बात, जिस प्राणीका सांसारिक भोग, धन, मान, आराम, सुख आदिका
उद्देश्य रहता है, उसके लिये वर्णके अनुसार कर्तव्य-कर्म करना और वर्णकी
मर्यादामें चलना आवश्यक हो जाता है । यदि वह वर्णकी मर्यादामें नहीं चलता तो उसका पतन
हो जाता है ।[†] परन्तु जिसका उद्देश्य केवल परमात्मा ही है, संसारके भोग आदि
नहीं, उसके लिये सत्संग, स्वाध्याय,
जप, ध्यान, कथा, कीर्तन, परस्पर विचार-विनिमय आदि भगवत्सम्बन्धी काम मुख्य होते हैं ।
तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिमें प्राणीके पारमार्थिक
भाव, आचरण आदिकी मुख्यता है, जाति
या वर्णकी नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
(गीता
१३ । २१)
कर्मणः
सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु
फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥
(गीता १४ । १६)
ऊर्ध्वं
गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था
अधो गच्छन्ति तामसाः
॥
(गीता
१४ । १८)
[†] आचारहीनं न पुनन्ति वेदा यदप्यधीताः सह षड्भिरङ्गैः
। छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥ (वसिष्ठस्मृति)
‘शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण
और ज्योतिष‒इन छहों अंगोंसहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन पुरुषको पवित्र नहीं
करते । पंख पैदा होनेपर पक्षी जैसे अपने घोंसलेको छोड़ देता है ऐसे ही मृत्युसमयमें
आचारहीन पुरुषको वेद छोड़ देते हैं ।’
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