(गत ब्लॉगसे आगेका)
जन्म तो पूर्वकर्मोंके अनुसार हुआ है ।[1]
इसमें वह बेचारा क्या कर सकता है ?
परन्तु वहीं (नीच वर्णमें) रहकर भी वह अपनी नयी उन्नति कर सकता
है । उस नयी उन्नतिमें प्रोत्साहित करनेके लिये ही शास्त्र-वचनोंका आशय मालूम देता
है कि नीच वर्णवाला भी नयी उन्नति करनेमें हिम्मत न हारे । जो ऊँचे वर्णवाला होकर भी
वर्णोचित काम नहीं करता, उसको भी अपने वर्णोचित काम करनेके लिये शास्त्रोंमें प्रोत्साहित
किया है; जैसे‒
ब्राह्मणस्य हि देहोऽयं क्षुद्रकामाय नेष्यते ।
(श्रीमद्भा॰ ११ । १७ । ४२)
जिन ब्राह्मणोंका खान-पान,
आचरण सर्वथा भ्रष्ट है,
उन ब्राह्मणोंका वचनमात्रसे भी आदर नहीं करना चाहिये‒ऐसा स्मृतिमें
आया है (मनु॰ ४ । ३०,
१९२) । परन्तु जिनके आचरण श्रेष्ठ हैं,
जो भगवान्के भक्त हैं,
उन ब्राह्मणोंकी भागवत आदि पुराणोंमें और महाभारत,
रामायण आदि इतिहास-कथोंमें बहुत महिमा गायी गयी है ।
भगवान्का भक्त चाहे कितनी ही नीची जातिका क्यों
न हो, वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मणसे श्रेष्ठ है ।[2]
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥
(श्रीमद्भा॰ ३ । ३३ । ७)
‘अहो
! वह चाण्डाल भी सर्वश्रेष्ठ है, जिसकी जीभके अग्रभागपर आपका नाम विराजता है ।
जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने
तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचारका
पालन और वेदाध्ययन‒सब कुछ कर लिया ।’
२. विप्राद् द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं
वरिष्ठम् ।
मन्ये
तदर्पितमनोवचनेहितार्थप्राण पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥
(श्रीमद्भा॰ ७ । १ । १०)
‘मेरी समझसे बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि
भगवान् कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख हो तो वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने
अपने मन, वचन, कर्म, धन
और प्राणोंको भगवान्के अर्पण कर दिया है; क्योंकि
वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है; परन्तु
बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला भगवद्विमुख ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता ।’
३. चाण्डालोऽपि मुनेः
श्रेष्ठो विष्णुभक्तिपरायणः ।
विष्णुभक्तिविहीनस्तु द्विजोऽपि श्वपचोऽधमः ॥
(पद्मपुराण)
‘हरिभक्तिमें लीन रहनेवाला चाण्डाल भी मुनिसे
श्रेष्ठ है और हरिभक्तिसे रहित ब्राह्मण चाण्डालसे भी अधम है ।’
४. अवैष्णवाद् द्विजाद्
विप्र चाण्डालो वैष्णवो वरः ।
सगणः श्वपचो मुक्तो ब्राह्मणो नरकं व्रजेत् ॥
(ब्रह्मवैवर्त॰, ब्रह्मा॰ ११ । ३९)
‘अवैष्णव ब्राह्मणसे वैष्णव चाण्डाल श्रेष्ठ है; क्योंकि
वह वैष्णव चाण्डाल अपने बन्धुगणोंसहित भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है और वह अवैष्णव ब्राह्मण
नरकमें पड़ता है ।’
५. न शूद्रा भगवद्भक्ता
विप्रा भागवताः स्मृताः ।
सर्ववर्णेषु ते शूद्रा ये ह्यभक्ता
जनार्दने ॥
(महाभारत)
‘यदि भगवद्भक्त शूद्र है तो वह शूद्र नहीं, परमश्रेष्ठ
ब्राह्मण है । वास्तवमें सभी वर्णोंमें शूद्र वह है, जो
भगवान्की भक्तिसे रहित है ।’
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