(गत ब्लॉगसे आगेका)
वर्तमानमें चारों वर्णोंमें गड़बड़ी आ जानेपर भी यदि चारों वर्णोंके
समुदायोंको इकट्ठा करके अलग-अलग समुदायमें देखा जाय तो ब्राह्मण-समुदायमें शम,
दम आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे,
उतने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-समुदायमें नहीं मिलेंगे । क्षत्रिय-समुदायमें
शौर्य, तेज आदि गुण जितने अधिक मिलेंगे,
उतने ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र-समुदायमें नहीं मिलेंगे । वैश्य-समुदायमें व्यापार
करना, धनका उपार्जन करना,
धनको पचाना (धनका भभका ऊपरसे न दीखने देना) आदि गुण जितने अधिक
मिलेंगे, उतने ब्राह्मण, क्षत्रिय और शूद्र-समुदायमें नहीं मिलेंगे । शूद्र-समुदायमें
सेवा करनेकी प्रवृत्ति जितनी अधिक मिलेगी,
उतनी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-समुदायमें नहीं मिलेगी । तात्पर्य यह है कि आज सभी वर्ण मर्यादारहित और उच्छृंखल होनेपर
भी उनके स्वभावज कर्म उनके समुदायोंमें विशेषतासे देखनेमें आते हैं अर्थात् यह चीज
व्यक्तिगत न दीखकर समुदायगत देखनेमें आती है ।
जो लोग शास्त्रके गहरे रहस्यको नहीं जानते,
वे कह देते हैं कि ब्राह्मणोंके हाथमें कलम रही,
इसलिये उन्होंने ‘ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ है’
ऐसा लिखकर ब्राह्मणोंको सर्वोच्च कह दिया । जिनके पास राज्य
था, उन्होंने ब्राह्मणोंसे कहा‒क्यों महाराज ! हमलोग कुछ नहीं हैं क्या ?
तो ब्राह्मणोंने कह दिया‒नहीं-नहीं,
ऐसी बात नहीं । आपलोग भी हैं,
आपलोग दो नम्बरमें हैं । वैश्योंने ब्राह्मणोंसे कहा‒क्यों महाराज
! हमारे बिना कैसे जीविका चलेगी आपकी ? ब्राह्मणोंने कहा‒हाँ, हाँ, आपलोग तीसरे नम्बरमें हैं । जिनके
पास न राज्य था, न धन था, वे ऊँचे उठने लगे तो ब्राह्मणोंने कह दिया‒आपके भाग्यमें राज्य
और धन लिखा नहीं है । आपलोग तो इन ब्राह्मणों,
क्षत्रियों और वैश्योंकी सेवा करो । इसलिये चौथे नम्बरमें आपलोग
हैं । इस तरह सबको भुलावेमें डालकर विद्या,
राज्य और धनके प्रभावसे अपनी एकता करके चौथे वर्णको पददलित कर
दिया‒यह लिखनेवालोंका अपना स्वार्थ और अभिमान ही है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’
पुस्तकसे
|