(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसका समाधान यह, है कि ब्राह्मणोंने कहीं भी अपने ब्राह्मणधर्मके लिये ऐसा नहीं
लिखा है कि ब्राह्मण सर्वोपरि हैं, इसलिये उनको बड़े आरामसे रहना चाहिये,
धन-सम्पत्तिसे युक्त होकर मौज करनी चाहिये इत्यादि,
प्रत्युत ब्राह्मणोंके लिये ऐसा लिखा है कि उनको त्याग करना
चाहिये, कष्ट सहना चाहिये; तपश्चर्या करनी चाहिये । गृहस्थमें रहते हुए भी उनको धन-संग्रह
नहीं करना चाहिये, अन्नका संग्रह भी थोड़ा ही होना चाहिये‒कुम्भीधान्य अर्थात् एक
घड़ा भरा हुआ अनाज हो, लौकिक भोगोंमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये,
और जीवन-निर्वाहके लिये किसीसे दान भी लिया जाय तो उसका काम
करके अर्थात् यज्ञ, होम, जप, पाठ आदि करके ही लेना चाहिये । गोदान आदि लिया जाय तो उसका प्रायश्रित्त
करना चाहिये ।
यदि कोई ब्राह्मणको श्राद्धका निमन्त्रण देना चाहे तो वह श्राद्धके
पहले दिन दे, जिससे ब्राह्मण उसके पितरोंका अपनेमें आवाहन करके रात्रिमें
ब्रह्मचर्य और संयमपूर्वक रह सके । दूसरे दिन वह यजमानके पितरोंका पिण्डदान,
तर्पण ठीक विधि-विधानसे करवाये । उसके बाद वहाँ भोजन करे । निमन्त्रण
भी एक ही यजमानका स्वीकार करे और भोजन भी एक ही घरका करे । श्राद्धका अन्न खानेके बाद
गायत्री-जप आदि करके शुद्ध होना चाहिये । दान लेना,
श्राद्धका भोजन करना ब्राह्मणके लिये ऊँचा दर्जा नहीं है । ब्राह्मणका
ऊँचा दर्जा त्यागमें है । वे केवल यजमानके पितरोंका कल्याण करनेकी भावनासे ही श्राद्धका
भोजन और दक्षिणा स्वीकार करते हैं, स्वार्थकी भावनासे नहीं;
अतः यह भी उनका त्याग ही है ।
(१) ऋत-वृत्ति सर्वोच्च वृत्ति मानी गयी है । इसको शिलोच्छ या
कपोत-वृत्ति भी कहते है । खेती करनेवाले खेतमेंसे धान काटकर ले जायँ उसके बाद वहाँ
जो अन्न (ऊमी, सिट्टा आदि) पृथ्वीपर गिरा पड़ा हो,
वह भूदेवों (ब्राह्मणों) का होता है;
अतः उनको चुनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोच्छवृत्ति’
है अथवा धान्यमण्डीमें जहाँ धान्य तौला जाता है,
वहाँ पृथ्वीपर गिरे हुए दाने भूदेवोंके होते हैं;
अतः उनको चुनकर जीवन-निर्वाह करना ‘कपोतवृत्ति’ है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’
पुस्तकसे
सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन ॥
(मनुस्मृति
४ । ४)
‘ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत‒इनमेंसे किसी भी वृत्तिसे
जीवन-निर्वाह करे; परन्तु आनवृत्ति अर्थात् सेवावृत्तिसे कभी भी
जीवन-निर्वाह न करे ।’
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