(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒गृहस्थमें बाल-बच्चोंके भरण-पोषण विवाह आदिको लेकर अनेक चिन्ताएँ रहती है, उन
चिन्ताओंसे छूटकारा कैसे पाया जा सकता है ?
उत्तर‒प्रत्येक प्राणी अपने प्रारब्धके अनुसार ही जन्मता है । प्रारब्धमें तीन चीजें
होती हैं‒जन्म, आयु और भोग ।[1] इन तीनोंमें प्राणीका ‘जन्म’ तो
हो चुका है, उसकी जीतनी ‘आयु’ है, उतना तो वह जीयेगा ही; और अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियोंका आना ‘भोग’ है । वास्तवमें परिस्थिति
किसीको भी सुखी-दुःखी नहीं करती, प्रत्युत मनुष्य ही अज्ञानवश परिस्थितिसे
सुखी-दुःखी हो जाता है ।
कन्या बड़ी हो जाय तो ऐसी
परिस्थितिमें उसके विवाहको लेकर चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि कन्या अपने
प्रारब्ध (भाग्य) को लेकर ही आयी है । अतः उसको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति उसके
प्रारब्धके अनुसार ही मिलेगी । माता-पिताको तो उसके विवाहके विषयमें यह विचार करना
है कि जहाँ हमारी कन्या सुखी रहे, वहीं उसको देना है । ऐसा विचार करना माता-पिताका
कर्तव्य है । परन्तु हम उसको सुखी कर ही देंगे, उसको अच्छा परिवार मिल ही जायेगा,
यह उनके हाथकी बात नहीं है । अतः कर्तव्यका पालन तो होना
चाहिये, पर चिन्ता नहीं होनी चाहिये ।
एक चिन्ता होती है और
एक विचार होता है । चिन्ता अज्ञान (मूर्खता) से पैदा होती है और उससे अन्तःकरण
मैला होता है, नया विकास नहीं होता । परन्तु विचारसे बुद्धिका विकास होता है । अतः हरेक काम कैसे करना है, किस
रीतिसे करना है आदि विचार तो करना चाहिये, पर चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये । यदि
चिन्तासे रहित होकर विचार किया जाय तो कोई-न-कोई उपाय जरुर मिल जाता है ।
प्रश्न‒यदि बेटे वृद्धावस्थामें सेवा न करें तो क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒बेटोंसे
अपनी ममता उठा लेनी चाहिये । यही मानना चाहिये कि ये हमारे बेटे नहीं हैं । कोई
भी सेवा न करे तो ऐसी अवस्थामें कुटुम्बियोंसे जो सुख-सुविधा पानेकी आशा होती है,
उसीसे दुःख होता है‒‘आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं
सुखम्’ । अतः उस आशाका ही त्याग कर देना चाहिये और असुविधामें तपकी
भावना करनी चाहिये कि ‘भगवान्की बड़ी कृपासे हमें स्वतः तप करनेका अवसर मिला है ।
अगर परिवारवाले हमारी सेवा करने लग जाते तो हम उनकी मोह-ममतामें फँस जाते, पर
भगवान्ने कृपा करके हमें फँसने नहीं दिया !’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
[1] सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । (योगदर्शन २ । १३)
|