(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्य मोह-ममतामें फँस
जाता है‒यही उसकी आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधा है । उस बाधाको जो हटाते हैं, उनका तो
उपकार ही मानना चाहिये कि ये हमें बाधारहित कर रहे हैं, हमारा कल्याण कर रहे हैं,
उनकी हमपर बड़ी भारी कृपा है !
जीवनभर सेवा लेते रहनेसे
वृद्धावस्थामें असमर्थताके कारण परिवारवालोंसे सेवा लेनेकी इच्छा ज्यादा हो जाती
है । अतः मनुष्यको पहलेसे ही सावधान रहना चाहिये कि मैं
सेवा लेनेके लिये यहाँ नहीं आया हूँ, मैं तो सबकी सेवा करनेके लिये ही आया हूँ;
क्योंकि मनुष्य, देवता, ऋषि-मुनि, पितर, पशु-पक्षी, भगवान् आदि सबकी सेवा करनेके
लिये ही यह मनुष्य-शरीर है । अतः किसीसे भी सुख-सुविधा नहीं चाहनी चाहिये ।
अगर हम पहलेसे ही किसीसे सुख-सुविधा, सेवा नहीं चाहेंगे तो वृद्धावस्थामें सेवा न
होनेपर भी दुःख नहीं होगा । हाँ, हमारे मनमें सेवा लेनेकी इच्छा न रहनेसे दूसरोंके मनमें हमारी सेवा करनेकी इच्छा
जाग्रत् हो जायेगी !
हरेक क्षेत्रमें
त्यागकी आवश्यकता है । त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है ।
प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी प्रसन्न रहना बड़ा भारी तप है । अन्तःकरणकी
शुद्धि तपसे होती है, सुख-सुविधासे नहीं । सुख-सुविधा चाहनेसे अन्तःकरण
अशुद्ध होता है । अतः मनुष्य सुख कभी चाहे
ही नहीं, प्रत्युत अपने
मन-वाणी-शरीरसे दूसरोंको सुख पहुँचाये ।
प्रश्न‒यदि परिवारमें कोई मर जाय तो मृतात्माकी
शान्तिके लिये तथा अपना शोक दूर करनेके लिये क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒(१)
मृतात्माके लिये विधिवत् नारायणबलि, श्राद्ध-तर्पण
आदि करना चाहिये । (२) जब-जब उसकी याद आये, तब-तब
उसको भगवान्के चरणोंमें देखना चाहिये । (३) उसके निमित्त गीता-पाठ, भागवत-सप्ताह
श्रीरामचरितमानसका नवाहपारायण, नाम-जप, कीर्तन
आदि करने चाहिये । (४) उसके निमित्त गरीब बालकोंको मिठाई बाँटनी चाहिये । मिठाई मिलनेसे
बालक प्रसन्न हो जाते हैं । उनकी प्रसन्नतासे मृतात्माको भी शान्ति मिलती है और खुदको
भी ।
सत्संग, कथा-कीर्तन, मन्दिर, तीर्थ
आदिमें जानेके विषयमें शोक नहीं रखना चाहिये, प्रत्युत
वहाँ जरूर जाना चाहिये । इनमें भी सत्संगकी विशेष महिमा है, क्योंकि
सत्संगसे सब प्रकारका शोक दूर होता है ।
(अपूर्ण)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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