सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कांता न दुभाषिणी
सन्मित्रं सुधनं स्वयोषिति
रतिश्चाज्ञापराः सेवकाः ।
आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मृष्टान्नपानं गृहे
साधोःसङ्गमुपासते हि
सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः ॥
‘घरमें सब सुखी हैं,
पुत्र बुद्धिमान् हैं, पत्नी मधुरभाषिणी है, अच्छे मित्र हैं, अपनी पत्निका ही
संग है, नौकर आज्ञापरायण हैं, प्रतिदिन अतिथि-सत्कार एवं भगवान् शंकरका पूजन होता
है, पवित्र एवं सुन्दर खान-पान है और नित्य ही संतोंका संग किया जाता है ̶ऐसा जो गृहस्थाश्रम है, वह धन्य
है !’
प्रश्न‒विवाह क्यों करें ? क्या विवाह करना आवश्यक है ?
उत्तर‒हमारे यहाँ दो तरहके ब्रह्मचारी
होते हैं
̶नैष्ठिक और उपकुर्वाण । जो आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते
हैं, वे ‘नैष्ठिक ब्रह्मचारी’ कहालाते हैं और जो
विचारके द्वारा भोगेच्छाको नहीं मिटा पाते और केवल भोगेच्छाको मिटानेके लिये ही
विवाह करते हैं, वे ‘उपकुर्वाण ब्रह्मचारी’ कहलाते
हैं । तात्पर्य है कि जो विचारके द्वारा भोगेच्छाको न मिटा सके, वह विवाह करके देख
ले, जिससे यह अनुभव हो जाय कि यह भोगेच्छा भोग भोगनेसे मिटानेवाली नहीं है । गृहस्थके
बाद वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रममें जानेका विधान किया गया है । सदा गृहस्थमें ही रहकर भोग भोगना मनुष्यता नहीं है ।
जिसके मनमें भोगेच्छा है अथवा जो
वंश-परंपरा चलाना चाहता है और (वंश-परंपरा चलानेके लिये ) उसका कोई भाई नहीं है,
उसको केवल भोगेच्छा मिटानेके उद्देश्यसे अथवा वंश-परम्परा चलानेके लिये विवाह कर
लेना चाहिये । अगर उपर्युक्त दोनों इच्छाएँ न हों तो
विवाह करनेकी जरुरत नहीं है । शास्त्रोमें निवृतिको सर्वश्रेष्ठ बताया गया
है‒‘निवृत्तिस्तु महाफला ।’
प्रश्न‒कलियुगमें तो संन्यास लेना मना किया गया है, अतः
मनुष्य निवृत्ति कैसे करे ?
उत्तर‒कलियुगमें संन्यास लेना इसलिये मना
किया गया है कि कलियुगमें संन्यास-धर्मका पालन करनेमें बहुत कठिनता है, जिससे
मनुष्य ठीक तरहसे संन्यास-धर्मको निभा नहीं सकता । अतः जैसे सरकारी कर्मचारी नौकरीसे
रिटायर होते हैं, ऐसे ही मनुष्यको घरसे रिटायर हो जाना चाहिये और बेटों-पोतोंको
काम-धंधा सौंपकर घरमें रहते हुए ही भजन-स्मरण करना चाहिये । यदि बेटे चाहते हो तो
घरसे केवल भोजन, वस्त्र आदि निर्वाहमात्रका सम्बन्ध रखना चाहिये । यदि बेटे न चाहे
तो निर्वाहमात्रका सम्बन्ध भी छोड़ देना चाहिये । निर्वाह कैसे होगा, इसकी चिन्ता
नहीं करनी चाहिये; क्योंकि‒
प्रारब्ध पहले रचा , पीछे
रचा सरीर ।
तुलसी चिन्ता क्यों करे,
भज ले श्रीरघुवीर ॥
प्रश्न‒गृहस्थका खास धर्म क्या है ?
उत्तर‒ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और
संन्यास‒इन चारों आश्रमोंकी सेवा करना गृहस्थका खास धर्म है; क्योंकि गृहस्थ ही
सबका माँ-बाप है, पालक है, संरक्षक है अर्थात् गृहस्थसे ही ब्रह्मचारी, गृहस्थ,
वानप्रस्थ और संन्यासी उत्पन्न होते हैं और पालित एवं संरक्षित होते हैं । अतः चारों आश्रमोंका पालन-पोषण करना गृहस्थका खास धर्म है ।
अतिथि-सत्कार करना; गाय-भैंस,
भेड़-बकरी आदिको सुख-सुविधा देना; घरमें रहनेवले चूहे आदिको भी अपने घरका सदस्य
मानना; उन सबका पालन-पोषण करना गृहस्थका खास धर्म है । ऐसे ही देवता, ऋषि-मुनिकी
सेवा करना, पितरोंको पिण्ड-पानी देना, भगवान्की विशेषतासे सेवा (भजन-स्मरण) करना गृहस्थका खास धर्म है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’
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