(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्र‒ईश्वर
का नमूना क्या है ?
उत्तर‒ईश्वरका नमूना जीवात्मा
है; क्योंकि ईश्वर भी नित्य एवं निर्विकार है और जीवात्मा भी नित्य एवं निर्विकार है
। परन्तु जीवात्मा प्रकृतिके वशमें हो जाता है और ईश्वर प्रकृतिके वशमें कभी हुआ नहीं,
है नहीं और होगा भी नहीं ।
सबको अपनी सत्ताका अनुभव होता है कि ‘मैं हूँ’ । इसमें न तो
कभी सन्देह होता है कि ‘मैं हूँ या नहीं हूँ’, न कभी परीक्षा करते हैं और न कभी अपनी सत्ताके अभावका अनुभव होता है । शरीर पहले
भी नहीं था और बादमें भी नहीं रहेगा, पर अपनी सत्ताकी तरफ ध्यान देनेसे ऐसा अनुभव नहीं होता कि मैं
नही था । हाँ, इस विषयमें ‘पता नहीं है’‒ऐसा तो कह सकते हैं, पर ‘मैं नहीं था’‒ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि अपनी सत्ताके (अपने-आपके)
अभावका अनुभव किसीको भी नहीं होता । वर्तमानमें भी शरीर प्रतिक्षण अभावमें जा
रहा है,
मिट रहा है, अपनेसे अलग हो रहा है, पर ‘मैं अभावमें जा रहा हूँ’‒ऐसा अनुभव किसीकी भी नहीं होता, प्रत्युत यही अनुभव होता है कि शरीर अभावमें जा रहा है । शरीरके अभावका अनुभव वही कर सकता है जो भावरूप हो । ‘नहीं’ को जाननेवाला
'है’-रूप ही हो सकता है । अतः सिद्ध हुआ कि शरीरके
अभावको जाननेवाला स्वयं (जीवात्मा) भावरूप है, सत् -रूप है ।
देखने-सुनने-समझनेमें जो कुछ संसार आता है, वह पहले नहीं था, बादमें नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी निरन्तर अभावमें जा रहा
है । संसार जैसा कल था, वैसा आज नहीं है और आज भी एक घण्टे पहले जैसा था, वैसा अभी नहीं है । अतः संसार प्रतिक्षण
अभावमें जा रहा है, ‘नहीं’ में जा रहा है । परन्तु जिसके आधारपर यह परिवर्तनशील
संसार टिका हुआ है, ऐसा कोई प्रकाशक, आधार, रचयिता, सर्वसमर्थ तत्त्व है, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । संसारमें देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब उस परिवर्तनरहित तत्त्वमें ही होता है । जैसे स्वच्छ आकाशमें
बादल बन जाते हैं,
बादलोंकी घटा बन जाती है, घटाके वर्षोन्मुख होनेपर उसमें गर्जना होने लगती है, बिजली चमकने लगती है, जलकी बूँदें बरसने लगती है, कभी-कभी ओले भी पड़ने लगते हैं;
परन्तु यह सब होनेपर भी आकाश ज्यों-का-त्यों रहता है । आकाशमें
कोई परिवर्तन नहीं होता । ऐसे ही ईश्वर आकाशकी तरह है । उसमें संसारका उत्पन्न और लीन
होना,
देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें परिवर्तन होना आदि विविध क्रियाएँ होती है, पर वह (ईश्वर) ज्यों-का-त्यों निर्विकार, परिवर्तनरहित रहता है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘गीता दर्पण’ पुस्तकसे
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