(गत ब्लॉगसे आगेका)
चाहना दो तरहकी होती है‒(१) हमारी चीज हमारेको मिल
जाय यह चाहना न्याययुक्त है; परन्तु परमात्मप्राप्तिमें यह चाहना भी बाधक है ।
(२) दूसरोंकी चीज हमारेको मिल जाय यह चाहना नरकोंमें ले जानेवाली है । ऐसे ही दहेज लेनेकी जो इच्छा है, वह नरकोंमें
ले जानेवाली है । दहेज कम मिले,
ज्यादा मिले और न भी मिले यह तो प्रारब्धपर निर्भर है,
पर अन्यायपूर्वक दूसरोंका धन लेनेकी जो इच्छा है,
वह घोर नरकोंमें ले जानेवाली है । मनुष्य-शरीर प्राप्त करके
घोर नरकोंमें जाना कितना बड़ा नुकसान है, पतन है ! अतः मनुष्यको कम-से-कम घोर
नरकोंमें ले जानेवाली इच्छाका,
पराये धनकी इच्छाका तो त्याग करना ही चाहिये ।
वास्तवमें धन प्रारब्धके अनुसार ही मिलता है, इच्छामात्रसे
नहीं । अगर धन इच्छामात्रसे मिलता तो कोई भी निर्धन नहीं रहता ! धनकी इच्छा कभी किसीकी पूरी हुई नहीं,
होगी नहीं और हो सकती भी नहीं । उसका तो त्याग ही करना पड़ेगा
। धन मिलनेवाला हो तो इच्छा न रखनेसे सुगमतापूर्वक मिलता है और इच्छा रखनेसे कठिनतापूर्वक,
पाप-अन्यायपूर्वक मिलता है । गीतामें अर्जुनने पूछा कि मनुष्य
न चाहता हुआ भी पाप क्यों कर बैठता है ? तो भगवान्ने उत्तर दिया कि कामना ही सम्पूर्ण पापोंका मूल है
( ३ । ३६-३७) ।
पुराने जमानेमें दहेजमें बेटेके ससुरालसे आया हुआ धन बाहर ही
वितरित कर दिया करते थे, अपने घरमें नहीं रखते थे और ‘दूसरोंकी कन्या दानमें ली है’‒इसके
लिये प्रायश्रित्त-रूपसे यज्ञ, दान, ब्राह्मण-भोजन आदि किया करते थे । कारण कि दूसरोंकी कन्या दानमें
लेना बड़ा भारी कर्जा (ऋण) है । परन्तु गृहस्थाश्रममें कन्या दानमें लेनी पड़ती है;
अतः उनका यह भाव रहता था कि हमारे घर कन्या होगी तो हम भी कन्यादान
करेंगे ।
जो ब्राह्मण विधि-विधानसे गाय आदिको दानमें लेते हैं,
वे भी उसके लिये प्रायश्चित्त-रूपसे यज्ञ,
गायत्री-जप करते हैं‒ऐसा हमने देखा है । जब दूसरोंका धन लेना भी दोष है, तो फिर
दहेजमें धन लेना दोष है ही । अगर कहीं दहेज लेना भी पड़े तो केवल देनेवालेकी इच्छापूर्ति, प्रसन्नताके
लिये ही लेना चाहिये । अपनी किंचिन्मात्र भी लेनेकी इच्छा नहीं हो और केवल देनेवालेकी
प्रसन्नताके लिये ही थोड़ा लिया जाय, तो वह लेना भी देनेके समान ही है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मातृशक्तिका घोर अपमान’ पुस्तकसे
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