(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीतामें भगवान् श्रीकृष्णने जगह-जगह अपने-आपको भगवान् कहा है;
जैसे‒
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए ही अवतार लेता हूँ
(४ । ६) । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें अच्छी तरहसे स्थित हूँ (१५ । १५) । जो
लोग अपनेमें और दूसरोंके शरीरोंमें स्थित मुझ अन्तर्यामी ईश्वरके साथ द्वेष करते हैं,
उनको मैं आसुरी योनियोंमें गिराता हूँ (१६ । १८-१९) । जो अश्रद्धालु
मनुष्य दम्भ, अहंकार, कामना, आसक्ति और हठसे युक्त होकर शास्त्रविधिसे रहित घोर तप करते हैं,
वे अपने पाञ्चभौतिक शरीरको तथा अन्तःकरणमें स्थित मुझ ईश्वरको
भी कष्ट देते हैं (१७ । ५- ६) ।
अन्वय-व्यतिरेकसे भी अपने ईश्वरपनेका वर्णन करते हुए भगवान्ने
कहा है कि जो मेरेको सम्पूर्ण लोकोंका महान् ईश्वर मानते हैं,
वे शान्तिको प्राप्त होते हैं (५ । २९) तथा जो मेरेको अज,
अविनाशी और महान् ईश्वर मानते हैं,
वे मोहसे एवं सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाते हैं (१० । ३) ।
परन्तु जो मेरे ईश्वरभावको न जानते हुए मेरेको मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना करते हैं,
वे मूढ़ (मूर्ख) हैं (९ । ११) । जो मेरेको सम्पूर्ण यज्ञोंका
भोक्ता तथा सम्पूर्ण संसारका मालिक नहीं मानते,
उनका पतन हो जाता है (९ । २४) ।
जिस ज्ञेय-तत्त्वको जाननेसे अमरताकी प्राप्ति होती है (१३ ।
१२), वह ज्ञेय-तत्त्व मैं ही हूँ; क्योंकि सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य तत्त्व
मैं ही हूँ (१५ । १५) । मैं सम्पूर्ण जगत्को पैदा करनेवाला हूँ । मेरे सिवाय इस जगत्की
रचना करनेवाला दूसरा कोई नहीं है । मैं ही सम्पूर्ण जगत्में ओतप्रोत हूँ (७ । ६-७)
। सात्त्विक, राजस और तामस भाव (क्रिया,
पदार्थ आदि) मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं (७ । १२) । प्राणियोंके
बुद्धि, ज्ञान, असम्मोह आदि भाव मेरेसे ही पैदा होते हैं (१० । ४-५) । चर-अचर,
स्थावर-जंगम आदि कोई भी वस्तु, प्राणी मेरेसे रहित नहीं है (१०
। ३९) सम्पूर्ण जगत् मेरे किसी एक अंशमें स्थित है (१० । ४२) ।
मैं ही अपनी प्रकृतिको वशमें करके संसारकी रचना करता हूँ (९
। ८) अथवा मेरी अध्यक्षतामें अर्थात् मेरेसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति संसारकी रचना
करती है (९ । १०) ।
दसवें अध्यायमें बीसवेंसे अड़तीसवें श्लोकतक कही हुई विभूतियोंमें
भगवान्ने अपने-आपको बताया है । फिर ग्यारहवें अध्यायमें भगवान्ने अर्जुनको दिव्यदृष्टि
देकर अपना अव्यय, अविनाशी, दिव्य विराट्रूप दिखाया । जब अत्युग्र विराट्रूपको
देखकर अर्जुन भयभीत हो गये, तब भगवान्ने अपना चतुर्भुजरूप दिखाकर उनको सान्त्वना दी और
फिर वे द्विभुजरूप हो गये, आदि-आदि । तात्पर्य है कि अगर श्रीकृष्ण
योगी हैं तो वे सत्य बोलते हैं और अगर सत्य बोलते है तो वे ईश्वर है; क्योंकि
स्वयं श्रीकृष्णने अपनेको ईश्वर कहा है । अतः जो श्रीकृष्णको योगी मानते हैं, उनको
‘श्रीकृष्ण ईश्वर हैं’‒यह मानना ही पड़ेगा ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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