सर्वागमेषु ये प्रोक्ता अवतारा जगत्प्रभोः
।
तद्रहस्यं हि गीतायां
कृष्णेन कथितं स्वयम्
॥
अपनी स्थितिसे नीचे उतरता है,
उसको ‘अवतार’ कहते हैं । जैसे, कोई शिक्षक बालकको पढ़ाता है तो वह उसकी स्थितिमें आकर पढ़ाता
है अर्थात् वह स्वयं ‘क, ख, ग’ आदि अक्षरोंका उच्चारण करता है और उस बालकसे उनका उच्चारण करवाता
है तथा उसका हाथ पकड़कर उससे उन अक्षरोंको लिखवाता है । यह बालकके सामने शिक्षकका अवतार
है । गुरु भी अपने शिष्यकी स्थितिमें आकर अर्थात् शिष्य जैसे समझ सके,
वैसी ही स्थितिमें आकर उसकी बुद्धिके अनुसार उसको समझाते हैं
। ऐसे ही मनुष्योंको व्यवहार और परमार्थकी शिक्षा देनेके
लिये भगवान् मनुष्योंकी स्थितिमें आते हैं, अवतार
लेते हैं ।
भगवान् मनुष्योंकी तरह जन्म नहीं लेते । जन्म न लेनेपर भी वे
जन्मकी लीला करते हैं अर्थात् मनुष्योंकी तरह माँके गर्भमें आते हैं;
परन्तु मनुष्यकी तरह गर्भाधान नहीं होता । जब भगवान् श्रीकृष्ण
माँ देवकीजीके गर्भमें आते हैं, तब वे पहले वसुदेवजीके मनमें आते हैं तथा नेत्रोंके द्वारा देवकीजीमें
प्रवेश करते हैं और देवकीजी मनसे ही भगवान्को धारण करती हैं ।[1] गीतामें भगवान् कहते हैं कि मैं अज (अजन्मा) रहते हुए ही जन्म
लेता हूँ अर्थात् मेरा अजपना ज्यों-का-त्यों ही रहता है । मैं अव्ययात्मा (स्वरूपसे
नित्य) रहते हुए ही अन्तर्धान हो जाता हूँ अर्थात् मेरे अव्ययपनेमें कुछ भी कमी नहीं
आती । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका, सम्पूर्ण लोकोंका ईश्वर (मालिक) रहते हुए ही माता-पिताकी आज्ञाका
पालन करता हूँ अर्थात् मेरे ईश्वरपनेमें, मेरे ऐश्वर्यमें कुछ भी कमी नहीं आती । मनुष्य तो अपनी प्रकृति-(स्वभाव-) के परवश होकर जन्म लेते हैं, पर मैं
अपनी प्रकृतिको अपने वशमें करके स्वतन्त्रतापूर्वक स्वेच्छानुसार अवतार लेता हूँ (४
। ६) ।
भगवान् अपने अवतार लेनेका समय बताते हुए कहते हैं कि जब-जब धर्मका
ह्रास होता है और अधर्म बढ़ जाता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ, प्रकट हो जाता हूँ (४ । ७) । अपने
अवतारका प्रयोजन बताते हुए भगवान् कहते हैं कि भक्तजनोंकी,
उनके भावोंकी रक्षा करनेके लिये,
अन्याय-अत्याचार करनेवाले दुष्टोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी
भलीभाँति स्थापना, पुनरुत्थान करनेके लिये मैं युग-युगमें अवतार लेता हूँ (४ ।
८) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं
मनस्तः ॥
(श्रीमद्भा॰ १० । २ । १८)
‘......यथा दीक्षाकाले गुरुः शिष्याय ध्यानमुपदिशति
शिष्यश्च ध्यानोक्तां मूर्तिं हृदि निवेशयति तथा वसुदेवो देवकीदृष्टौ स्वदृष्टिं निदधौ
। दृष्टिद्वारा च हरिः संक्रामन् देवकीगर्भे आविर्बभूव । एतेन रेतोरूपेणाधानं निरस्तम्
॥'
(अन्वितार्थप्रकाशिका)
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