(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक दृष्टिसे भगवान्का अवतार नित्य है । इस संसाररूपसे भगवान्का
ही अवतार है । साधकोंके लिये साध्य और साधनरूपसे भगवान्का अवतार है । भक्तोंके लिये
भक्तिरूपसे, ज्ञानयोगियोंके लिये ज्ञेयरूपसे और कर्मयोगियोंके लिये कर्तव्यरूपसे
भगवान्का अवतार है । भूखोंके लिये अन्नरूपसे,
प्यासोंके लिये जलरूपसे,
नंगोंके लिये वस्त्ररूपसे और रोगियोंके लिये ओषधिरूपसे भगवान्का
अवतार है । भोगियोंके लिये भोगरूपसे और लोभियोंके लिये रुपये,
वस्तु आदिके रूपसे भगवान्का अवतार है । गरमीमें छायारूपसे और
सरदीमें गरम कपड़ोंके रूपसे भगवान्का अवतार है । तात्पर्य
है कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगम आदिके रूपसे भगवान्का ही अवतार है; क्योंकि
वास्तवमें भगवान्के सिवाय दूसरी कोई चीज है ही नहीं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (७ । १९); ‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९) । परन्तु जो संसाररूपसे प्रकट हुए
प्रभुको भोग्य मान लेता है, अपनेको उसका मालिक मान लेता है, उसका
पतन हो जाता है, वह जन्मता-मरता रहता है ।
जो लोग यह मानते है कि भगवान् निराकार ही रहते है,
साकार होते ही नहीं; उनकी यह धारणा बिलकुल गलत है;
क्योंकि मात्र प्राणी अव्यक्त (निराकार) और व्यक्त (साकार) होते
रहते हैं । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त थे,
बीचमें व्यक्त हो जाते हैं और फिर वे अव्यक्त हो जाते हैं (२
। २८) । पृथ्वीके भी दो रूप हैं‒निराकार और साकार । पृथ्वी तन्मात्रारूपसे निराकार
और स्थूलरूपसे साकार रहती है । जल भी परमाणुरूपसे निराकार और भाप,
बादल, ओले आदिके रूपसे साकार रहता है । वायु निःस्पन्दरूपसे निराकार
और स्पन्दनरूपसे साकार रहती है । अग्नि दियासलाई,
काष्ठ, पत्थर आदिमें निराकाररूपसे रहती है और घर्षण आदि साधनोंसे साकार
हो जाती है । इस तरह मात्र सृष्टि निराकार-साकार होती रहती है । सृष्टि प्रलय-महाप्रलयके
समय निराकार और सर्ग-महासर्गके समय साकार रहती है । जब प्राणी
भी निराकार-साकार हो सकते हैं,
पृथ्वी, जल आदि
महाभूत भी निराकार-साकार हो सकते हैं, सृष्टि भी निराकार-साकार हो सकती है, तो क्या
भगवान् निराकार-साकार नहीं हो सकते ?
उनके निराकार-साकार होनेमें क्या बाधा है ? इसलिये गीतामें भगवान्ने कहा है कि यह सब संसार मेरे अव्यक्त
स्वरूपसे व्याप्त है‒‘मया ततमिद सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’(९ । ४) यहाँ भगवान्ने अपनेकी
‘मया’ पदसे व्यक्त (साकार) और ‘अव्यक्तमूर्तिना’
पदसे अव्यक्त (निराकार) बताया है । सातवें अध्यायके चौबीसवें
श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि जो मेरेको अव्यक्त (निराकार) ही मानते हैं,
व्यक्त (साकार) नहीं,
वे बुद्धिहीन हैं; और जो मेरेको व्यक्त (साकार) ही मानते हैं,
अव्यक्त (निराकार) नहीं,
वे भी बुद्धिहीन हैं;
क्योंकि वे दोनों ही मेरे परमभावको नहीं जानते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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