(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो वस्तु होती है, उसीको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है । जो वस्तु नहीं होती,
उसको प्राप्त करनेकी इच्छा होती ही नहीं । जैसे,
किसीके मनमें यह इच्छा नहीं होती कि मैं आकाशके फल खाऊँ,
आकाशके फूल सूँधूँ; क्योंकि आकाशमें फल-फूल लगते ही नहीं । मनुष्यमात्रमें
यह इच्छा रहती है कि मैं सदा जीता रहूँ (कभी मरूँ नहीं);
सब कुछ जान लूँ (कभी अज्ञानी न रहूँ) और सदा सुखी रहूँ (कभी
दुःखी न होऊँ) । मैं सदा जीता रहूँ‒यह ‘सत्’ की इच्छा
है; मैं सब कुछ जान लूँ‒यह ‘चित्’ की इच्छा है;
और मैं सदा सुखी रहूँ‒यह
‘आनन्द’ की इच्छा है । इससे सिद्ध हुआ कि ऐसा
कोई सच्चिदानन्द-स्वरूप तत्त्व है, जिसको प्राप्त करनेकी इच्छा मनुष्यमात्रमें है ।
उसी तत्त्वको ईश्वर कहते हैं ।
कोई भी मनुष्य अपनेसे किसीको बड़ा मानता है तो उसने
वास्तवमें ईश्वरवादको स्वीकार कर लिया; क्योंकि बड़प्पनकी परम्परा जहाँ समाप्त होती है, वही ईश्वर है‒‘पूर्वेषामपि गुरूः कालेनानवच्छेदात् ।’ (पातंजलयोगदर्शन
१ । २६) । कोई व्यक्ति होता
है तो उसका पिता होता है और उसके पिताका भी कोई पिता होता है । यह परम्परा जहाँ समाप्त
होती है, उसका नाम ईश्वर है‒‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (११ । ४३) । कोई बलवान् होता है तो उससे भी अधिक कोई बलवान् होता है ।
यह बलवत्ताकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है; क्योंकि उसके समान बलवान् कोई नहीं । कोई विद्वान् होता है तो
उससे भी अधिक कोई विद्वान् होता है । यह विद्वत्ताकी अवधि जहाँ समाप्त होती है,
उसका नाम ईश्वर है;
क्योंकि उसके समान विद्वान् कोई नहीं‒‘गुरुर्गरीयान्’ (११ । ४३)
। तात्पर्य है कि बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, ऐश्वर्य, शोभा आदि गुणोंकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, वही ईश्वर है; क्योंकि उसके समान कोई नहीं है‒‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः
कुतोऽन्यः’ (११ । ४३) । वास्तवमें ईश्वर माननेका ही विषय है, विचारका विषय नहीं । विचारका विषय वही होता है, जिसमें जिज्ञासा होती है
और जिज्ञासा उसीमें होती है, जिसके विषयमें हम कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते । परन्तु
जिसके विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते, उसके
विषयमें जिज्ञासा नहीं होती, उसपर विचार नहीं होता । उसको तो हम मानें या न मानें‒इसमें
हम स्वतन्त्र हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता दर्पण’ पुस्तकसे
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