(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒वेदव्यासजी
आदि कारकपुरुषोंको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः
दोंनोंमें क्या अन्तर है ?
उत्तर‒वेदव्यासजी
आदि कारकपुरुष भगवान्के कलावतार, अंशावतार कहलाते हैं । वे भगवान्की इच्छासे ही यहाँ अवतार लेते हैं । अवतार लेकर
वे धर्मकी स्थापना और साधु पुरुषोंकी रक्षा तो करते हैं,
पर दुष्टोंका विनाश नहीं करते । कारण कि दुष्टोंके विनाशका काम भगवान्का ही है, कारकपुरुषोंका
नहीं ।
आजकल अपनेमें कुछ विशेषता देखकर लोग अपनेको भगवान्
सिद्ध करने लगते हैं और नामके साथ ‘भगवान’ शब्द लगाने लगते हैं‒यह कोरा पाखण्ड ही है
। अपनेको भगवान् कहकर वे अपनेको पुजवाना चाहते हैं, अपना
स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये लोगोंको ठगना चाहते हैं । मनुष्योंको ऐसे नकली भगवानोंके
चक्करमें पड़कर अपना पतन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत
ऐसे भगवानोंसे सदा दूर ही रहना चाहिये ।
किसी सम्प्रदायको माननेवाले मनुष्य अपनी श्रद्धा-भक्तिसे सम्प्रदायके
मूल पुरुष-(आचार्य-) को भी अवतारी भगवान् कह देते है;
पर वास्तवमें वे भगवान् नहीं होते । वे आचार्य मनुष्योंको भगवान्की तरफ लगाते हैं, उन्मार्गसे
बचाकर सन्मार्गमें लगाते हैं, इसलिये वे उस सम्प्रदायके लिये भगवान्से भी अधिक
पूजनीय हो सकते हैं [*], पर भगवान् नहीं हो सकते ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
☀☀☀☀
भगवान् हृदयमें ही नहीं,
प्रत्युत दीखनेवाले समस्त संसारके कण-कणमें विद्यमान हैं । ऐसे
सर्वत्र विद्यमान परमात्माको जब हम सच्चे हृदयसे देखना चाहेंगे,
तभी वे दीखेंगे । यदि हम संसारको देखना
चाहेंगे तो भगवान् बीचमें नहीं आयेंगे, संसार
ही दीखेगा । हम संसारको देखना
नहीं चाहते, उससे हमें कुछ भी नहीं लेना है,
न उसमें राग करना है न द्वेष,
हमें तो केवल भगवान्से प्रयोजन है‒
इस भावसे हम एक भगवान्से ही घनिष्ठता कर लें । भगवान् हमारी
बात सुनें या न सुनें, मानें या न मानें, हमें अपना लें या ठुकरा दें‒इसकी कोई परवाह न करते हुए हम भगवान्से
अपना अटूट सम्बन्ध (जो कि नित्य है) जोड़ लें[†] । जैसे माता पार्वतीने कहा था‒
जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न त रहउँ
कुआरी ॥
तजउँ न नारद कर
उपदेसू ।
आपु कहहिं सत बार महेसू ॥
(मानस, बाल॰ ८१ । ३)
पार्वतीके मनमें यह भाव था कि शिवजीमें ऐसी शक्ति ही नहीं है
कि वे मुझे स्वीकार न करें । इसी प्रकार हम सबका सम्बन्ध
भगवान्के साथ है । हम भगवान्से विमुख भले ही हो जायँ, पर भगवान् हमसे विमुख कभी हुए
नहीं, हो सकते नहीं । हमारा त्याग करनेकी उनमें शक्ति नहीं
है ।
(‒‘लक्ष्य अब
दूर नहीं’ पुस्तकसे)
राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ॥
(रामचरितमानस
७ । १२० । ८-९)
[†] वास्तवमें भगवान्के साथ हमारा सदासे ही अटूट सम्बन्ध है । परन्तु
भगवान्से विमुख हो जानेके कारण हमें उस सम्बन्धका अनुभव नहीं होता ।
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