(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्र‒योगीकी
और भगवान्की सर्वज्ञतामें क्या अन्तर है ? क्योंकि
योगी भी सबकुछ जान लेता हैं और भगवान् भी ।
उत्तर‒जो साधन करके शक्ति
प्राप्त करते हैं, उनकी सामर्थ्य, सर्वज्ञता सीमित होती है । वे किसी दूरके विषयको,
किसीके मनकी बातको जानना चाहें तो जान सकते हैं,
पर उसको जाननेके लिये उनको अपनी मनोवृत्ति लगानी पड़ती है । भगवान्की
सामर्थ्य, सर्वज्ञता असीम है । भगवानको किसी भूत-वर्तमान-भविष्यके विषयको जाननेके लिये
अपनी मनोवृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रस्तुत वे उसको स्वतः-स्वाभाविक जानते हैं । उनकी सर्वज्ञता
स्वतः-स्वाभाविक है ।
प्रश्र‒योगी
भी चाहे जितने दिनतक अपने शरीरको रख सकता है और भगवान् भी; अतः
दोनोंमें अन्तर क्या हुआ ?
उत्तर‒योगी प्राणायामके
द्वारा अपने शरीरको बहुत दिनोंतक रख सकता है,
पर ऐसा करनेमें प्राणायामकी पराधीनता रहती है । भगवान्को मनुष्यरूपसे
प्रकट रहनेके लिये किसीके भी पराधीन नहीं होना पड़ता । वे सदा-सर्वदा स्वाधीन रहते हैं
। तात्पर्य है कि योगीकी शक्ति साधनजन्य होती है; अतः वह
सीमित होती है और भगवान्की शक्ति स्वतःसिद्ध होती है; अतः वह
असीम होती है ।
प्रश्न‒योगीको
भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः
दोंनोंमें क्या अन्तर है ?
उत्तर‒षडैश्वर्य-सम्पन्न
होनेसे; अणिमा, महिमा, गरिमा आदि सिद्धियोंसे युक्त होनेसे योगीको भी भगवान् कह देते
हैं, पर वास्तवमें वह भगवान् नहीं हो जाता । कारण कि वह भगवान्की
तरह स्वतन्त्रतापूर्वक सृष्टि-रचना आदि कार्य नहीं कर सकता । विशेष तपोबलसे वह विश्वामित्रकी तरह कुछ हदतक सृष्टि-रचना भी कर
सकता है, पर उसकी वह शक्ति सीमित ही होती है और उसमें तपोबलकी
पराधीनता रहती है ।
भगवत्ता दो तरहकी होती है‒साधन-साध्य और स्वतःसिद्ध । योग आदि
साधनोंसे जो भगवत्ता (अलौकिक ऐश्वर्य आदि) आती है,
वह सीमित होती है, असीम नहीं; क्योंकि वह पहले नहीं थी,
प्रस्तुत साधन करनेसे बादमें आयी है । परन्तु भगवान्की भगवत्ता असीम, अनन्त
होती है; क्योंकि वह किसी कारणसे भगवान्में नहीं आती, प्रत्युत
स्वतःसिद्ध होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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