(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒अगर माता-पिता पुत्रके साथ कठोरताका बर्ताव करें, पक्षपात करें तो उस पुत्रको क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒उस पुत्रको माँ-बापका
कर्तव्य नहीं देखना चाहिये । उसको तो अपना ही कर्तव्य देखना चाहिये और माँ-बापकी उत्साहपूर्वक
विशेषतासे सेवा करनी चाहिये । रामचरितमानसमें तो हरेकके लिये कहा गया है‒‘मंद
करत जो करइ भलाई ॥’ (५ । ४१ । ७) ।
अगर माता-पिता
पुत्रका आदर करते हैं तो आदरमें पुत्रकी सेवा खर्च हो जाती है, बिक जाती है ।
परन्तु वे आदर न करके पुत्रका निरादर करते हैं तो पुत्रकी सेवा पूरी रह जाती है, खर्च नहीं होती
। वे कष्ट देते हैं तो उससे पुत्रकी शुद्धि होती है, सहनशीलता बढ़ती है, तप बढ़ता है, महत्त्व बढता
है । अतः माता-पिताके दिये हुए कष्टको परम तप समझकर प्रसन्नतासे सहना चाहिये और यह
समझना चाहिये कि ‘मेरेपर माँ-बापकी बड़ी कृपा है, जिससे मेरी सेवाका
किंचिन्मात्र भी व्यय न होकर मेरेको शुद्ध सेवा, शुद्ध तपश्चर्याका लाभ मिल रहा
है ! ऐसा अवसर तो किसी भाग्यशालीको ही मिलता है और मेरा यह अहोभाग्य है कि माता-पिता
मेरी सेवा स्वीकार कर रहे हैं !’ अगर वे सेवा स्वीकार न भी करें
तो भी पुत्रका काम तो उनकी सेवा करना ही है । सेवामें कोई कमी, त्रुटि मालूम
दे तो उसको तत्काल सुधार देना चाहिये और सेवामें ही तत्पर रहना चाहिये ।
जो पुत्र धन, जमीन, मकान आदि पानेकी
आशासे माँ-बापकी सेवा करता है, वह वास्तवमें धन आदिकी ही सेवा
करता है, माँ-बापकी नहीं
। पुत्रको तो केवल सेवाका ही सम्बन्ध रखना चाहिये । उसको माता-पितासे यही कहना चाहिये
कि आपके पास जो धन-सम्पत्ति हो वह चाहे मेरे भाईको दे दो, चाहे बहनको दे
दो, जिसको आप चाहो, उसको दे दो, पर सेवा मेरेसे
लो । माता-पिता हमारेसे सेवा ले लें‒इसीमें उनकी कृपा माने
।
प्रश्न‒माता-पिता अनुचित, निषिद्ध कर्म करनेकी आज्ञा दें तो पुत्रको
क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒अनुचित आज्ञा
दो तरहकी होती है‒(१) ‘अमुकको मार दो’ आदि दूसरोंका
अनिष्ट करनेकी आज्ञा देना और (२) ‘तुम घर छोड़कर वनमें जाओ’ आदि आज्ञा देना
। इनमेंसे दूसरी आज्ञाका तो पालन करना चाहिये, पर पहली आज्ञाका पालन नहीं करना
चाहिये । उसमें पिताकी सामर्थ्य देखनी चाहिये । अगर पिता समर्थ हो तो उस आज्ञाका पालन
करनेमें कोई हर्ज नहीं है । जैसे, जमदग्निने अपने पुत्र परशुरामजीसे
कहा कि तुम्हारी माँ व्यभिचारिणी है और तुम्हारे भाई मेरी आज्ञाका पालन नहीं करते; अतः इनको मार
डालो, तो परशुरामजीने
उनका गला काट डाला । जमदग्निने प्रसन्न होकर कहा कि तुम वरदान माँगो । परशुरामजीने
कहा कि माँ और भाइयोंको जीवित कर दो और उनको मेरे द्वारा मारे जानेकी बात याद न रहे
। जमदग्निने ‘तथास्तु’ कहा और सब जीवित
हो गये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
|