(गत ब्लॉगसे आगेका)
अगर पिता समर्थ
नहीं है और वह अनुचित आज्ञा देता है तो पुत्रको उस आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये ।
कारण कि अगर पुत्र उस अनुचित आज्ञाका पालन करेगा तो पिताको नरक होगा । जिस आज्ञाके पालनसे पिताको नरक हो, दुःख
पाना पड़े, ऐसी
आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये । मैं भले ही नरकमें चला जाऊँ, पर पिता नरकमें
न जाय‒ऐसा भाव होनेसे न पुत्रको नरक होगा और न पिताको । तात्पर्य है कि पिताको नरकसे
बचानेके लिये उनकी आज्ञा भंग कर दे, पर अनुचित काम कभी न करे ।
अगर पिता समर्थ
नहीं है और वह अनुचित आज्ञा देता है, पर पुत्रने उम्रभर माता-पिताकी
किसी भी आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया है तो पुत्र उस अनुचित आज्ञाके पालनमें जल्दबाजी
न करे, उसपर विचार करे
और भगवान्को याद करे । जैसे, गौतमने अपने पुत्र चिरकारीसे
कहा कि तुम्हारी माँ व्यभिचारिणी है, इसको मार डालो; और ऐसा कहकर वे
वनमें चले गये । चिरकारीने तलवार निकाली और पिताकी आज्ञापर विचार करने लगा । वहाँ गौतमके
मनमें विचार आया कि उसको क्यों मारें, उसका त्याग भी तो कर सकते हैं
। ऐसा विचार करके वे लौटकर आये तो उन्होंने देखा कि चिरकारी हाथमें तलवार लिये खड़ा
है; अतः उन्होंने
चिरकारीको मना कर दिया कि माँको मत मारो ।
प्रश्न‒गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है‒
जाके प्रिय न
राम-बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी
सम, जद्यपि परम
सनेही ॥
तज्यो पिता प्रह्लाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी
।
बलि
गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बनितन्हि, भये
क्त-मंगलकारी ॥
‒प्रह्लादने पिताका, विभीषणने भाईका, भरतने माँका, बलिने गुरुका और गोपियोंने पतिका त्याग
कर दिया, तो क्या उनको दोष नहीं लगा ?
उत्तर‒यहाँ यह बात ध्यान
देनेकी है कि उन्होंने पिता आदिका त्याग किस विषयमें, किस अंशमें किया
? हिरण्यकशिपु प्रह्लादजीको
बहुत कष्ट देता था, पर प्रह्लादजी उसको प्रसन्नतापूर्वक सहते थे । वे इस बातको
मानते थे कि यह शरीर पिताका है; अतः वे इस शरीरको चाहे जैसा रखें, इसपर उनका पूरा
अधिकार है । इसीलिये उन्होंने पिताजीसे कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको कष्ट क्यों दे
रहे हैं ? परन्तु मैं (स्वयं)
साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः मैं भगवान्की सेवामें, भजनमें लगा हूँ
। पिताजी इसमें बाधा देते हैं, मुझे रोकते हैं‒यह उचित नहीं
है । इसलिये प्रह्लादजीने पिताजीकी उस आज्ञाका त्याग किया, जिससे उनको नरक
न हो जाय । अगर वे पिताजीकी आज्ञा मानकर भगवद्भक्तिका त्याग कर देते तो इसका दण्ड पिताजीको
भोगना पड़ता । पुत्रके द्वारा ऐसा कोई भी काम नहीं होना चाहिये, जिससे
पिताको दण्ड भोगना पड़े । इसी दृष्टिसे उन्होंने पिताकी आज्ञा
न मानकर पिताका हित ही किया, पिताका त्याग नहीं किया ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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