(गत ब्लॉगसे आगेका)
रावणने विभीषणको
लात मारी और कहा कि तुम यहाँसे चले जाओ तो विभीषणजी रामजीके पास चले गये । अतः विभीषणने
भाईका त्याग नहीं किया । प्रत्युत उसके अन्यायका त्याग किया; अन्यायका समर्थन, अनुमोदन नहीं
किया । विभीषणने रावणको उसके हितकी बात ही कही और उसका हित ही किया ।
माँने रामजीको
वनमें भेज दिया,
दुःख दिया‒इस
विषयमें ही भरतने माँका त्याग किया है । भरतका कहना था कि जैसे कौसल्या अम्बा मेरेपर
रामजीसे भी अधिक स्नेह करती हैं, ऐसे ही तेरेको भी रामजीपर मेरेसे
भी अधिक स्नेह करना चाहिये था; परन्तु रामजीको तूने वनमें भेज
दिया ! जब तू रामजीकी भी माँ नहीं रही, तो फिर मेरी माँ कैसे रहेगी ? इस विषयमें तेरेको
दण्ड देना मेरे लिये उचित नहीं है । मैं तो यह कर सकता हूँ कि तेरेको ‘माँ’ नहीं कहूँ, और मैं क्या करूँ
!
बलिने गुरुका
इस अंशमें त्याग किया कि साक्षात् भगवान् ब्राह्मणवेशमें आकर मेरेसे याचना कर रहे हैं, पर गुरुजी मेरेको
दान देनेसे रोक रहे हैं; अतः मैं गुरुकी बात नहीं मानूँगा । गुरुकी बातका त्याग
भी बलिने गुरुके हितके लिये ही किया । बलि दान देनेके लिये तैयार ही थे । अगर उस समय
वे गुरुकी बात मानते तो उसका दोष गुरुको ही लगता । अतः उन्होंने गुरुका शाप स्वीकार
कर लिया और उस दोषसे, अहितसे गुरुको बचा लिया । स्वयं दण्ड भोग लिया, पर गुरुको दण्डसे
बचा लिया तो यह गुरु-सेवा ही हुई !
पति भगवान्के
सम्मुख होनेके लिये रोक रहे थे‒इसी विषयमें गोपियोंने पतियोंका त्याग किया । अगर वे
पतिकी बात मानतीं तो पति पापके भागी होते; अतः पतिकी बात न मानकर उन्होंने
पतियोंको पापसे ही बचाया । तात्पर्य है कि मनुष्य-शरीरकी
सार्थकता परमात्माको प्राप्त करनेमें ही है । अतः उसमें सहायक होनेवाला हमारा हित करता
है और उसमें बाधा देनेवाला हमारा अहित करता है । प्रह्लाद आदि सभीने परमात्मप्राप्तिमें
बाधा देनेवालेका ही त्याग किया है, पिता आदिका नहीं । इसीलिये उनका
मंगल-ही-मंगल हुआ ।
प्रश्न‒माताका दर्जा ऊँचा है या पिताका ? और ऊँचा होनेमें क्या कारण है ?
उत्तर‒ऊँचा दर्जा माँका
ही है । माँका दर्जा पितासे सौ गुणा अधिक बताया गया है‒‘सहस्र
तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते’ (मनु
२ । १४५) । रामजी जब वनवासके लिये जाने लगे, तब वे माँके पास
गये और माँके चरणोंमें पड़कर कहा कि ‘माँ ! मुझे वनवासकी आज्ञा हुई
है ।’ माँने कहा कि
अगर केवल पिताकी ऐसी आज्ञा है तो फिर माँको बड़ी समझकर तुम वनमें मत जाओ‒
जौ केवल पितु
आयसु
ताता ।
तौ जनि जाहु जानि
बड़ि माता ॥
(मानस, अयोध्या॰ ५६
। १)
हाँ, अगर तुम्हारी
छोटी माँ और पिताने वनमें जानेके लिये कह दिया है तो[*] वन तुम्हारे
लिये सौ अयोध्याके समान है‒
जौ पितु मातु
कहेउ बन जाना ।
सौ कानन सत अवध समाना ॥
(मानस, अयोध्या॰ ५६
। २)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
[*] कौसल्या अम्बाने अपनेसे भी अधिक छोटी माँ (विमाता)-का
आदर करनेकी जो बात कही है, यह उनका उदारभाव । कौसल्याने
सबको यह शिक्षा दी है कि माँसे भी विमाताका अधिक आदर करना चाहिये, जिससे परिवारमें परस्पर प्रेम बना रहे ।
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