(गत ब्लॉगसे आगेका)
पिता तो धन-सम्पत्ति
आदिसे पुत्रका पालन-पोषण करता है, पर माँ अपना शरीर देकर पुत्रका
पालन-पोषण करती है । धन-सम्पत्ति आदि तो ममताकी वस्तुएँ हैं और शरीर अहंताकी । ममतासे
अहंता नजदीक होती है । ममताकी वस्तुएँ आती-जाती रहती हैं और शरीर अपेक्षाकृत रहता है
। अतः माँका दर्जा ऊँचा होना ही चाहिये ।
माँने अपनी युवावस्थाका
नाश किया है । अपना शरीर देकर, अपना दूध पिलाकर पालन-पोषण किया
है । माँने दाईका, नाईका, धोबीका, दर्जीका, गुरुका काम भी
किया है ! और तो क्या, टट्टी-पेशाब उठाकर मेहतरका काम भी किया है ! वह काम भी
भाररूपसे नहीं,
प्रत्युत बड़े
स्नेहपूर्वक,
ममतापूर्वक, उत्साहपूर्वक
किया है और बदलेमें लेनेकी भावना नहीं रखी है । जब बच्चा बीमार हो जाता है तब माँके
शरीरका बल घट जाता है । अतः संसारमें माँके समान बच्चेका पालन-पोषण करनेवाला और कौन
है ! ‘मात्रा
समं नास्ति शरीरपोषणम् ।’ इसीलिये माँका दर्जा ऊँचा है
। शास्त्रोंमें आया है कि पुत्र साधु-संन्यासी बन जाय, फिर भी यदि माँ
सामने आ जाय तो वह माँको साक्षात् दण्डवत् प्रणाम करे । इतना ऊँचा दर्जा और किसका हो
सकता है !
प्रश्न‒माता-पिताकी सेवासे क्या लाभ है ?
उत्तर‒माता-पिताकी
सेवासे लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं, भगवान्
प्रसन्न होते हैं । जो माता-पिताकी सेवा नहीं करते, उनपर
भगवान् विश्वास नहीं करते कि यह अपने माँ-बापकी भी सेवा, भक्ति
नहीं करता तो फिर मेरी भक्ति कहाँतक करेगा !
पुण्डरीकने तन-मनसे
तत्परतापूर्वक माता-पिताकी सेवा की । उसकी सेवासे प्रसन्न होकर भगवान् बिना बुलाये
ही पुण्डरीकके घर आ गये और बोले‒‘पुण्डरीक ! तेरी माता-पिताकी भक्तिसे प्रसन्न होकर
मैं स्वयं तेरे पास तेरेको दर्शन देने आया हूँ ।’ पुण्डरीक उस समय
माता-पिताकी सेवामें लगे हुए थे; अतः वे भगवान्से बोले‒‘माता-पिताकी
जिस सेवाके कारण आप यहाँ मुझे दर्शन देने आये हैं, उस सेवाको मैं क्यों छोड़ूँ ? अभी मैं माता-पिताकी
सेवामें लगा हुआ हूँ; सेवा पूरी होनेपर ही मैं आपके दर्शन कर सकता हूँ, तबतक आप रुकना
चाहें तो इन ईंटोंपर खड़े हो जायँ ।’ ऐसा कहकर पुण्डरीकने दो ईंटें पीठके पीछे फेंक
दीं । भगवान् उनपर खड़े हो गये ! ईंटोंपर खड़े होनेके कारण भगवान्का नाम ‘विट्ठल’ पड़ गया । भगवान्के
इस रूपका कोई दर्शन करना चाहे तो पण्ढरपुर (महाराष्ट्र) में कर सकता है । इसी प्रकार
महाभारतमें मूक चाण्डालकी बात आती है । मूक चाण्डालकी माता-पितामें भक्ति देखकर स्वयं
भगवान् उसके घरपर रहते थे ! तात्पर्य है कि माता-पिताकी सेवासे
लौकिक-पारलौकिक सब तरहके लाभ होते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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