(गत ब्लॉगसे आगेका)
आप जिसके हैं और जो आपका है, उस
परमात्माके साथ आप अपना सम्बन्ध ठीक स्वीकार कर लें तो आप वास्तवमें बड़े हो जायँगे
। फिर आपमें बड़े-छोटे होनेका अभिमान और दीनता नहीं रहेगी, परंतु
दूसरी वस्तुओंके द्वारा अपनेको बड़ा-छोटा मानेंगे तो अभिमान और दीनता कभी जायगी नहीं
।
आने-जानेवाली चीजोंके द्वारा अपनेको बड़ा-छोटा मानना ही तो बन्धन
है । बन्धन कोई जानकर थोड़े ही होता है । यह बन्धन छूटा और मुक्त हुए । दूसरोंके द्वारा
हम अपनेको बड़ा-छोटा स्वीकार न करें तो हम मुक्त हो गये कि नहीं ?
स्वाधीन हो गये कि नहीं ?
बताइये ।
श्रोता‒ठीक
बात है महाराजजी !
स्वामीजी‒ठीक बात है तो फिर पराधीन क्यों रहे ?
आप कृपा करें, अभीसे यह मान लें कि हम पदके द्वारा अपनेको बड़ा नहीं मानेंगे,
धनके द्वारा अपनेको बड़ा नहीं मानेंगे । लोग हमारा आदर करें तो
अपनेको बड़ा नहीं मानेंगे । लोग हमारा निरादर कर दें तो अपनेको छोटा नहीं मानेंगे ।
हमें परवाह नहीं कि लोग हमें अच्छा मानें । यह बात आप मान सकते हैं कि नहीं ?
श्रोता‒हाँ, मान
सकते हैं ।
स्वामीजी‒तो फिर देरी क्यों करते हैं ? किसकी प्रतीक्षा करते हैं आप ?
किसी परिस्थितिकी प्रतीक्षा करते हैं,
किसी बलकी प्रतीक्षा करते हैं,
किसी समयकी प्रतीक्षा करते हैं,
किसी सहारेकी प्रतीक्षा करते हैं,
किसी उपदेशकी प्रतीक्षा करते हैं,
किसकी प्रतीक्षा करते हैं, बताइये ?
मेरी तो प्रार्थना है कि आप अभी-अभी मान लें कि अब हम इन आने-जानेवाली
तुच्छ चीजोंके द्वारा अपनेको बड़ा-छोटा नहीं मानेंगे । भगवान्ने कहा है‒
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्य भारत ॥
(गीता २ । १४)
अर्थात् जो आने-जानेवाले हैं,
अनित्य हैं, उन्हें सह लें । सहनेका अर्थ है उनके
आने-जानेका असर अपनेपर न पड़े । उनका असर अपनेपर न पड़े तो इतनी शान्ति,
इतना आनन्द होगा, जिसका कोई पारावार नहीं है । आप करके देखें । सच्ची बात है,
मैं धोखा नहीं देता हूँ । ऐसी मस्ती आयेगी,
जैसे कोई कीचड़मेसे बाहर निकल आया हो ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
|