(गत ब्लॉगसे आगेका)
सृष्टिमें सबसे पहले प्रणव (ॐ) प्रकट हुआ है । उस प्रणवकी तीन
मात्राएँ हैं‒‘अ’, ‘उ’ और ‘म’ । इन तीनों मात्राओंसे त्रिपदा गायत्री प्रकट हुई
है । त्रिपदा गायत्रीसे ऋक्, साम और यजुः‒ये तीन वेद प्रकट
हुए हैं । वेदोंसे शास्त्र, पुराण आदि सम्पूर्ण वाङ्मय
जगत् प्रकट हुआ है । इस दृष्टिसे ‘प्रणव’ सबका मूल है और इसीके अन्तर्गत गायत्री तथा
सम्पूर्ण वेद हैं । अतः जितनी भी वैदिक क्रियाएँ की जाती हैं, वे सब ‘ॐ’ का उच्चारण करके ही की जाती हैं‒‘तस्मादोमित्युदाहृत्य
यज्ञदानतपःक्रिया । प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥’ (गीता १७ । २४) । जैसे गायें साँड़के बिना फलवती नहीं होतीं, ऐसे ही वेदकी जितनी ऋचाएँ श्रुतियाँ हैं, वे सब ‘ॐ’ का उच्चारण किये बिना अभीष्ट फल देनेवाली नहीं होतीं । गीतामें भगवान्ने
प्रणवको भी अपना स्वरूप बताया है‒‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ (१० । २५), ‘प्रणवः सर्ववेदेषु’ (७ । ८), गायत्रीको भी अपना स्वरूप बताया
है‒‘गायत्री छन्दसामहम्’ (१० । ३५), और वेदोंको भी अपना स्वरूप
बताया है ।
सृष्टिचक्रको चलानेमें वेदोंकी मुख्य भूमिका है । वेद कर्तव्य-कर्मोंको
करनेकी विधि बताते हैं‒‘कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि’ (गीता ३ । १५), ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’ (गीता ४ । ३२)[1] । मनुष्य उन कर्तव्य-कर्मोंका विधिपूर्वक पालन करते हैं । निष्कामभावसे
कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है । यज्ञसे वर्षा होती है, वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी उत्पन्न होते
हैं और उन प्राणियोंमें मनुष्य कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं । इस तरह यह
सृष्टिचक्र चल रहा है‒
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
(गीता ३ । १४-१५)
भगवान् गीतामें कहते हैं कि ऊपरकी ओर मूलवाले तथा नीचेकी ओर
शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्षको अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्षको जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला
है‒
ऊर्ध्वभूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दासि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
(१५ । १)
संसारसे विमुख होकर उसके मूल परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव
कर लेना ही वेदोंका वास्तविक तात्पर्य जानना है । वेदोंका
अध्ययन करनेमात्रसे मनुष्य वेदोंका विद्वान् तो हो सकता है, पर यथार्थ तत्ववेत्ता नहीं । परन्तु वेदोंका अध्ययन न होनेपर
भी जिसको संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक परमात्मतत्त्वका अनुभव हो गया है, वही वास्तवमें वेदोंके तात्पर्यको जाननेवाला अर्थात्
अनुभवमें लानेवाला ‘वेदवेत्ता’ है‒‘यस्तं वेद स वेदवित् ।’
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