(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्ने भी अपनेको वेदान्तका कर्ता अर्थात् वेदोंके निष्कर्षका
वक्ता और वेदवेत्ता कहा है‒‘वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्’ (१५ । १५) । इससे यह तात्पर्य निकलता है कि जिसने परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, ऐसे वेदवेत्ताकी भगवान्के साथ एकता (सधर्मता) हो जाती है‒‘मम साधर्म्यमागता’ (गीता १४ । २) ।
भगवान्ने गीतामें अपनेको ही संसारवृक्षका मूल ‘पुरुषोत्तम’
बताया है‒
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम
।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥
(१५ । १८)
‘मैं क्षरसे अतीत हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ ।’
वेदमें आये ‘पुरुषसूक्त’ में
पुरुषोत्तमका वर्णन हुआ है । गीतामें भगवान् कहते हैं कि वेदोंमें इन्द्ररूपसे जिस
परमेश्वरका वर्णन हुआ है, वह भी मैं ही हूँ, इसलिये स्वर्गप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य यज्ञोंके द्वारा मेरा ही पूजन करते हैं‒‘त्रैविद्यां मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते
।’ (गीता ९ । २०)
वेदोंमें सकामभाववाले मन्त्रोंकी संख्या तो अस्सी हजार है, पर मुक्त करनेवाले अर्थात् निष्कामभाववाले मन्त्रोंकी संख्या बीस हजार ही है, जिसमें चार हजार मन्त्र ज्ञानकाण्डके और सोलह हजार मन्त्र उपासनाकाण्डके हैं ।
इसलिये गीतामें कुछ श्लोक ऐसे भी आते हैं, जिनमें वेदोंकी निन्दा प्रतीत होती है; जैसे‒‘यामिमां पुष्पितां वाचम्’, ‘वेदवादरताः’ ( २ । ४२) । कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां
भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (२ । ४३), ‘त्रैगुण्यविषया वेदाः’ (२ । ४५), ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ (६ । ४४), ‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (९ । २१), ‘न वेदयज्ञाध्ययनैर्न........द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर’ (११ । ४८), नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेव्यया । शक्य एवविधो द्रष्टुं
दृष्टवानसि मां यथा ॥ (११ । ५३), ‘छन्दासि यस्य पर्णानि’ (१५ । १) आदि । वास्तवमें यह वेदोंकी निन्दा नहीं है, प्रत्युत वेदोंमें आये सकामभावकी निन्दा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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