(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारके मनुष्य प्रायः मृत्युलोकके भोगोंमें ही लगे रहते हैं
। परन्तु उसमें भी जो विशेष बुद्धिमान् कहलाते हैं, उनके हृदयमें भी नाशवान् वस्तुओंका महत्त्व रहनेके कारण जब वे वेदोंमें कहे हुए
सकाम कर्मोंका तथा उनके फलका वर्णन सुनते हैं, तब वे वेदोंमें श्रद्धा-विश्वास होनेके कारण यहाँके भोगोंकी इतनी परवाह न करके
स्वर्गप्राप्तिके लिये वेदोंमें वर्णित यज्ञोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं । उन सकाम
अनुष्ठानोंके फलस्वरूप वे लोग स्वर्गमें जाकर देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं, जो मनुष्यलोकके भोगोंकी अपेक्षा बहुत विलक्षण हैं । वे लोग स्वर्गके प्रापक जिन
पुण्योंके फलस्वरूप स्वर्गमें जाते हैं, उन पुण्योंके समाप्त होनेपर
वे पुनः मृत्युलोकमें लौट आते हैं‒‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं
विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति’ (गीता ९ । २१) । सकामभावके कारण ही मनुष्य बार-बार जन्मता-मरता है‒‘गतागतं
कामकामा लभन्ते’ (गीता ९ । २१) । इसलिये भगवान्ने सकामभावकी निन्दा की है ।
वेदोंमें सकामभावका वर्णन होनेका कारण यह है कि वेद
श्रुतिमाता है और माता सब बालकोंके लिये समान होती है । संसारमें सकामभाववाले मनुष्योंकी
संख्या अधिक रहती है । अतः वेदमाताने अपने बालकोंकी अलग-अलग रुचियोंके अनुसार
लौकिक और पारमार्थिक सब तरहकी सिद्धियोंके उपाय बताये हैं ।
भगवान्ने वेदोंको संसारवृक्षके पत्ते बताया है‒‘छन्दांसि यस्य पर्णानि’ और वेदोंकी वाणीको ‘पुष्पित’ कहा है‒‘यामिमां
पुष्पितां वाचम्’ । यद्यपि निषिद्ध कर्मोंको करनेकी अपेक्षा वेदविहित सकाम अनुष्ठानको
करना श्रेष्ठ है, तथापि उससे मुक्ति नहीं हो सकती । अतः साधकको वैदिक सकाम अनुष्ठानरूप पत्तों और पुष्पोंमें तथा नाशवान्
फलमें न फँसकर संसारवृक्षके मूल‒परमात्माका ही आश्रय लेना चाहिये । वेदोंका
वास्तविक तत्त्व संसार या स्वर्ग नहीं है, प्रत्युत परमात्मा ही हैं‒‘वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यः’ (गीता १५ । १५) । महाभारतमें आया है‒
सांगोपांगनपि यदि यश्च
वेदानधीयते ।
वेदवेद्यं न जानीते वेदभारवहो हि सः ॥
(शान्ति॰ ३१८ । ५०)
‘सांगोपांग वेद पढ़कर भी जो वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य
परमात्माको नहीं जानता, वह मूढ़ केवल वेदोंका बोझ ढोनेवाला है ।’
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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