(गत ब्लॉगसे आगेका)
हरदोई जिलेमें
इकनोरा नामका गाँव है । वहाँ एक लड़की अपनी ननिहालमें थी । पति बीमार था, वह मर गया । उसको
पतिके मरनेका समाचार मिला । उसने मामासे पूछा कि सती सुलोचनाको पतिका सिर नहीं मिलता
तो वह क्या करती ? मामाने कहा कि मुझे क्या पता ? उसने कहा कि मामाजी
! मैं सती होऊँगी । मामाने कहा कि ऐसा नहीं करना बेटी ! उसने कहा कि मैं करती नहीं
हूँ, होता है । उसने
दीपक जलाया और उसपर अपनी अँगुली रखी तो उसकी अँगुली मोमबत्तीकी तरह जलने लगी । उसने
मामासे कहा कि आप मुझे सती होनेकी आज्ञा देते हैं या नहीं । नहीं तो आपका यह सारा घर
भस्म हो जायगा । मामाने कहा कि अच्छा तेरी जैसी मरजी हो, वैसा कर । उसने
जलती हुई अँगुलीको एक दीवारपर बुझाया और घरसे बाहर जाकर पीपलवृक्षके नीचे खड़ी हो गयी
तथा मामासे कहा कि मुझे लकड़ी दो । मामाने कहा कि हम न लकड़ी देंगे, न आग । गाँवके
लोग वहाँ इकट्ठे हो गये थे । उसने हाथ जोड़कर सूर्यभगवान्से प्रार्थना की कि हे नाथ
! आप आग दो । ऐसा कहते ही वह वहाँ खड़ी-खड़ी अपने-आप जल गयी ! उस आगसे पीपलके पत्ते जल
गये । यह सब गाँवके लोगोंने अपनी आँखोंसे देखा । वहाँके मुसलमानोंसे पूछा गया तो उन्होंने
भी कहा कि यह सब घटना हमारे सामने घटी है । करपात्रीजी महाराज भी वहाँ गये थे और उन्होंने
दीवारपर काली लकीर देखी, जहाँ उसने अपनी जलती हुई अँगुली बुझायी थी और पीपलके जले
हुए पत्ते भी देखे ।
तात्पर्य है कि
यह सतीप्रथा नहीं है । यह तो उसका खुदका धार्मिक उत्साह है । इस विषयमें प्रभुदत्त
ब्रह्मचारीजीने ‘सतीधर्म हिन्दूधर्मकी रीढ़ है’ नामक पुस्तक लिखी
है[1], उसको पढ़ना चाहिये
।
प्रश्न‒पतिव्रताके भाव और आचरण कैसे होते हैं ?
उत्तर‒उसमें धार्मिक
भावोंकी प्रबलता होती है, जिससे वह तन-मनसे पतिकी सेवा करती है । पतिके मनमें ही
अपना मन मिला देती है, अपना कुछ नहीं रखती । उसका मन पतिमें ही खिंचा रहता है
। उसका यह पातिव्रत ही उसकी रक्षा करता है ।
प्रायः पतिव्रताका
सम्बन्ध पूर्वजन्मके पतिके साथ ही होता है । कहीं-कहीं ऐसा भी होता है कि बचपनमें कन्याको
अच्छी शिक्षा,
अच्छा संग मिलनेसे
उसके भाव अच्छे बन जाते हैं तो वह विवाह होनेपर पतिव्रता बन जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’
पुस्तकसे
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