(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒‘नहि कलि करम न भगति बिबेकू’ । राम नाम अवलंबन एकू ॥’ (मानस १ । २७ । ४)‒ ऐसा कहनेका क्या
तात्पर्य है ?
उत्तर‒कलियुगमें यज्ञादि शुभ-कर्मोंका सांगोपांग होना बहुत कठिन है और उनके विधि-विधानको
ठीक तरहसे जाननेवाले पुरुष भी बहुत कम रह गये हैं तथा शुद्ध गौघृत आदि सामग्री मिलनी
भी कठिन हो रही है । अतः कलियुगमें शुभ-कर्मोंका अनुष्ठान सांगोपांग न होनेसे,
उसमें विधि-विधानकी कमी रहनेसे कर्ताको दोष लगता है ।
वैधीभक्ति विधि-विधानसे की जाती है । उसमें किस इष्टदेवका किस
विधिसे पूजा-पाठ होना चाहिये‒इसको जाननेवाले बहुत कम है । अतः वह भक्ति करना भी इस
कलियुगमें कठिन है ।
ज्ञानमार्ग कठिन है और ज्ञानमार्गकी साधना बतानेवाले अनुभवी
पुरुषोंका मिलना भी बहुत कठिन है । अतः विवेकमार्गमें चलना कलियुगमें बहुत कठिन है
। तात्पर्य है कि इस कलियुगमें कर्म, भक्ति और ज्ञान‒इन तीनोंका होना बहुत कठिन है,
पर भगवान्का नाम लेना कठिन नहीं है । भगवान्का नाम सभी ले सकते है; क्योंकि
उसमें कोई विधि-विधान नहीं है । उसको बालक, स्त्री, पुरुष, वृद्ध, रोगी
आदि सभी ले सकते हैं और हर समय, हर परिस्थितिमें, हर
अवस्थामें ले सकते हैं ।
नाम एक सम्बोधन है, पुकार
है । उसमें आर्तभावकी ही मुख्यता है,
विधिकी मुख्यता नहीं । अतः भगवान्का नाम लेकर हरेक मनुष्य आर्तभावसे भगवान्को पुकार
सकता है ।
शंका‒नामजपमें
मन नहीं लगता और मन लगे बिना नामजप करनेमें कुछ फायदा नहीं ! कहा भी है‒
माला तो कर में फिरे, जीभ
फिरै मुख माहिं ।
मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै,यह तो
सुमिरन नाहिं ॥
समाधान‒मन नहीं लगेगा तो ‘सुमिरन’ (स्मरण) नहीं होगा‒यह बात सच्ची है,
पर नामजप नहीं होगा‒यह बात दोहेमें नहीं कही गयी है । मन नहीं
लगनेसे सुमिरन नहीं होगा तो नहीं सही, पर नामजप तो हो ही जायगा ! नामजप कभी
व्यर्थ हो ही नहीं सकता; अतः मन लगे चाहे न लगे, नाम‒जप
करते रहना चाहिये ।
जब मन लगेगा, तब नामजप करेंगे‒ऐसा होना सम्भव नहीं है । हाँ,
अगर हम नामजप करने लग जाये तो मन भी लगने लग जायगा;
क्योंकि मनका लगना नामजपका परिणाम है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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