(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है या नहीं ?
उत्तर‒अगर पहली स्त्रीसे
सन्तान न हुई हो तो पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये, केवल सन्तान-उत्पत्तिके लिये
पुरुष शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार दूसरा विवाह कर सकता है । अपने सुखभोगके लिये वह दूसरा विवाह नहीं कर सकता; क्योंकि
यह मनुष्य-शरीर अपने सुख-भोगके लिये है ही नहीं ।
पुनर्विवाह अपनी
पूर्वपत्नीकी आज्ञासे, सम्मतिसे ही करना चाहिये और पत्नीको भी चाहिये कि वह पितृऋणसे
मुक्त होनेके लिये पुनर्विवाहकी आज्ञा दे दे । पुनर्विवाह
करनेपर भी पतिको अपनी पूर्वपत्नीका अधिकार सुरक्षित रखना चाहिये; उसका
तिरस्कार, निरादर
कभी नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उसको
बड़ी मानकर दोनोंको उसका सम्मान करना चाहिये ।
जिसकी सन्तान
तो हो गयी,
पर स्त्री मर
गयी, उसको पुनर्विवाह
करनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि वह पितृऋणसे मुक्त हो गया । परन्तु जिसकी भोगासक्ति
नहीं मिटी है,
वह पुनर्विवाह
कर सकता है;
क्योंकि अगर वह
पुनर्विवाह नहीं करेगा तो वह व्यभिचारमें प्रवृत्त हो जायगा, वेश्यागामी हो
जायगा, जिससे उसको भयंकर
पाप लगेगा । अंतः इस पापसे बचनेके लिये और मर्यादामें रहनेके लिये उसको शास्त्रकी आज्ञाके
अनुसार पुनर्विवाह कर लेना चाहिये ।
प्रश्न‒पहले राजालोग अनेक विवाह करते थे तो क्या ऐसा करना उचित था ?
उत्तर‒जो राजालोग अपने
सुखभोगके लिये अधिक विवाह करते थे, वे आदर्श नहीं माने गये हैं ।
केवल राजा होनेमात्रसे कोई आदर्श नहीं हो जाता । जो शास्त्रकी
आज्ञाके अनुसार चलते थे, धर्मका पालन करते
थे, वे
ही राजालोग आदर्श माने गये हैं ।
वास्तवमें
विवाह करना कोई ऊँचे दर्जेकी चीज नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । आवश्यक तो परमात्मप्राप्ति
करना है । इसीके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, विवाह
करनेके लिये नहीं । स्त्री-पुरुषका संग तो देवतासे लेकर
भूत-प्रेत आदितक स्थावर-जंगम हरेक योनिमें होता है; अतः यह कोई महत्ताकी बात नहीं
है । परन्तु परमात्मप्राप्तिका अवसर, अधिकार, योग्यता आदि तो
मनुष्यजन्ममें ही है । मनुष्य परमात्मप्राप्तिका जन्मजात अधिकारी है । जो विचारके द्वारा अपनी विषयासक्तिको, भोगासक्तिको
नहीं छोड़ पाते, ऐसे कमजोर मनुष्योंके लिये ही विवाहका
विधान किया गया है । भोगोंको भोगकर उनसे विरक्त होनेके
लिये, उनमें अरुचि करनेके
लिये ही गृहस्थाश्रममें प्रवेश करना चाहिये । जो विषयासक्तिको नहीं छोड़ पाते, उनपर ही पितृऋण
रहता है अर्थात् उपकुर्वाण ब्रह्मचारीपर ही वंश-परम्परा चलानेका दायित्व रहता है, नैष्ठिक ब्रह्मचारी
और भगवान्के भक्तपर नहीं । तात्पर्य है कि पितृऋण उसी पुरुषपर
रहता है, जो भोगासक्ति नहीं मिटा सका । जिसमें भोगासक्ति
नहीं है, उसपर कोई ऋण रहता
ही नहीं, चाहे वह कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी आदि
कोई भी क्यों न हो ! कारण कि इन्कमपर ही टैक्स लगता है, मालपर ही जगात
लगती है । जिसके पास इन्कम है ही नहीं, उसपर टैक्स किस बातका ? माल है ही नहीं
तो जगात किस बातकी ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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