(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒भगवान्के आनन्दकी अनुभूति क्यों नहीं होती ?
स्वामीजी‒संसारके सुखमें आसक्ति होनेके कारण । इसको जबतक नहीं छोड़ोगे,
तबतक भगवान्के आनन्दका अथवा निजानन्दका अनुभव नहीं होगा ।
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श्रोता‒दो समुदायोंमें प्रेम कैसे बना रहे ?
स्वामीजी‒अपनी जिद छोड़ दे । जो अपनी जिद पहले छोड़ दे,
उसीकी महिमा है । दोनों समुदायोंके मुख्य-मुख्य आदमी विचार कर
लें तो आपसकी खटपट मिट सकती है । प्रेमकी महिमा सबसे अधिक है । प्रेमकी जितनी महिमा
है, उतनी महिमा ज्ञानकी भी नहीं है और भगवान्के साक्षात् दर्शनकी भी नहीं है ! यदि
आपसमें निष्काम प्रेम हो जाय तो वह प्रेम भगवत्प्राप्तिमें कारण हो जाता है !
आपसमें जो वैर-विरोध होता है,
वह प्रारब्धसे नहीं होता,
प्रत्युत अपनी गलतीसे होता है । अपनी गलतीको मिटानेमें हम स्वतन्त्र
हैं । अपनी गलती मिटा दें, अपना अभिमान छोड़ दें तो प्रेम हो जायगा । वैर रखनेसे बहुत नुकसान
होता है । जिस घरमें लड़ाई होती है, उस घरकी कन्या कोई लेना नहीं चाहता कि हमारे घरमें चिनगारी आ
जायगी तो आग लग जायगी ! आपसमें खटपट होनेसे कुएँका पानीतक सूख जाता है ! आपसमें प्रेम
होनेसे धन-सम्पत्ति भी बढ़ जाती है‒
जहाँ सुमति तहँ संपति
नाना ।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥
(मानस, सुन्दर॰ ४० । ३)
जिस घरमें प्रेम होता है,
उस घरकी रोटी साधु भी लेना चाहते हैं,
जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो । आपसमें स्नेह होता है‒नम्रतासे,
सरलतासे, सीधेपनसे, द्वेष न रखनेसे, ईर्ष्या न रखनेसे ।
अपने-अपने घरोंमें,
गाँवोंमें एक-दूसरेकी सेवा करो,
सुख पहुँचाओ । दूसरोंको सुख पहुँचानेकी अपनी आदत बना लो । जो
गरीब घर हैं, जहाँ अन्न-वस्त्रकी तंगी है,
उन घरोंमें छिपकर अन्न-वस्त्र पहुँचाओ,
गरीब बालकोंको पढ़ाओ,
उनकी सहायता करो तो आपका पैसा सफल हो जायगा । इसका बड़ा भारी
पुण्य होगा । यह निश्चित बात है कि जिस दिन मरोगे,
पैसा छोड़कर ही मरोगे । आजतक ऐसा कभी नहीं हुआ कि पैसा सब खर्च
हो गया, पीछे आदमी मरा । विरक्त,
त्यागी सन्त-महात्माकी भी तूँबी,
लँगोटी पीछे रहती है,
मरता है पहले !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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