(गत ब्लॉगसे आगेका)
सजातीयतामें खिंचाव होता है । अतः जिनके भीतर कुसंगके संस्कार
हैं, उनपर कुसंगका असर ज्यादा पड़ता है । जिनके भीतर सत्संगके संस्कार हैं,
उनपर सत्संगका असर ज्यादा पड़ता है । इसलिये सत्संगके द्वारा
अपने भीतर अच्छे संस्कार भरने चाहिये ।
जिसका भगवान्में प्रेम है,
उसका माता-पिता आदिमें,
पशु-पक्षियोंमें, सब प्राणियोंमें प्रेम होगा ही ।
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श्रोता‒बाहरकी पवित्रतासे क्या लाभ ? मन पवित्र होना चाहिये । मन पवित्र है तो बाहरकी पवित्रताकी
क्या जरूरत ?
स्वामीजी‒मन अपवित्र, खराब होता है, तभी यह बात पैदा होती है कि बाहरकी पवित्रतासे क्या लाभ ?
अगर मन पवित्र हो तो शास्त्रसे विरुद्ध काम हो ही नहीं सकता,
असम्भव बात है । अगर शास्त्रसे विरुद्ध बात पैदा होती है तो
यह मनकी अपवित्रताका प्रमाण है । मन पवित्र होगा तो शास्त्र-विरुद्ध बात पैदा हो ही
नहीं सकती, प्रत्युत बिना शास्त्र पढ़े मनमें शास्त्रके अनुकूल बात पैदा
होगी । राजा दुष्यन्तने जब कण्व ऋषिके आश्रममें शकुन्तलाको देखा तो उनके मनमें विचार
आया कि यह किसी क्षत्रियकी बेटी है, ब्राह्मणकी बेटी नहीं है । अगर यह ब्राह्मणकी बेटी होती तो मेरा
मन उसमें खिंचता ही नहीं‒
असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः ।
सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ॥
(अभिज्ञानशकुन्तलम्
१ । २१)
‘इसमें सन्देह नहीं कि यह क्षत्रियद्वारा ग्रहण करनेयोग्य है, जिससे मेरा विशुद्ध मन भी इसको चाहता है; क्योंकि जहाँ सन्देह हो, वहाँ सत्पुरुषोंके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण
होती है ।’
सीताजीको देखनेपर रामजी भी कहते हैं‒
रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ
।
मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी ।
जेहिं सपनेहुँ परनारि न
हेरी ॥
(मानस, बाल॰ २३१ । ३)
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श्रोता‒ईश्वरदर्शन और आत्मसाक्षात्कारमें क्या अन्तर है ?
स्वामीजी‒आत्मसाक्षात्कार तो हरेक साधकको हो सकता है;
उसको भी हो सकता है,
जो ईश्वरको नहीं मानता । परन्तु ईश्वरदर्शन उसीको होते हैं,
जो ईश्वरको मानता है । चेतन-तत्त्व एक होते हुए भी ईश्वर अलग
है, जीव अलग है । ईश्वर सबका मालिक है, जीव सबका मालिक नहीं है । संसारकी उत्पत्ति,
स्थिति और प्रलय करनेका काम ईश्वरका है,
जीवका नहीं‒‘जगद्व्यापारवर्जम्’ (ब्रह्मसूत्र
४ । ४ । १७) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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