(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒भगवान्के दर्शन हो सकते हैं, यह तो ठीक है, पर क्या नारदजी आदि प्राचीन ऋषियोंके भी दर्शन हो सकते हैं ?
स्वामीजी‒हाँ, हो सकते हैं । सन्त-महात्मा भी नित्य होते हैं । गीतामें भगवान्ने
‘प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानाम्’ (१० ।
३०) ‘दैत्योंमें प्रह्लाद मैं हूँ’‒ऐसा कहा है, ‘दैत्योंमें प्रह्लाद मैं था’‒ऐसा नहीं कहा है । तात्पर्य है कि प्रह्लाद,
नारद, अंगिरा आदि अभी भी हैं ।
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श्रोता‒हम धर्मको मानते हैं, सुबह-शाम पूजा भी करते हैं,
फिर एक चोटी न रखें तो क्या हानि है ?
स्वामीजी‒घड़ीमें अनेक पुर्जे होते हैं । उनमेंसे एक छोटा-सा पुर्जा भी निकाल दो तो घड़ी चलेगी
नहीं । आप कोई भी काम करो, उसमें छोटी-सी भी कमी रह जायगी तो वह कमी ही रहेगी,
इसमें सन्देह नहीं है । घड़ीमें छोटे-से-छोटा पुर्जा भी अपनी
जगह पूरा है । उसकी कीमत बड़े पुर्जेसे कम नहीं है । इसी तरह चोटी भी अपनी जगह पूरी
है । अपनी-अपनी जगह सब पूरे हैं । क्या घड़ीके छोटे पुर्जेकी जगह बड़ा पुर्जा काम कर
सकता है ?
छोटी-सी कमी भी कमी ही रहेगी,
उसकी पूर्ति नहीं हो सकती । महाराज नलके शरीरमें प्रवेश करनेके
लिये कलियुग कई दिनोंतक प्रतीक्षा करता रहा । एक दिन लघुशंका करके नलने हाथ तो धो लिये,
पर पैर नहीं धोये तो कलियुग उनमें प्रवेश कर गया ! छोटी-सी कमी
भी बड़ी भारी कमी है । अतः चोटी न रखना बड़ी भारी कमी है !
अगर सच्चे हृदयसे अपना कल्याण चाहते हो तो अपनी बुद्धिमानी मत
लगाओ, शास्त्रकी बात मानो । गीता कह रही है‒‘तस्माछास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ’ (१६ ।
२४) अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्यके
विषयमें शास्त्र ही प्रमाण है ।
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श्रोता‒मेरा एक भाई कैन्सर-रोगके कारण बड़ा कष्ट पा रहा है । ऐसी अवस्थामें उसका कल्याण
हो, इसके लिये क्या करना चाहिये ?
स्वामीजी‒वह सब घरवालोंका हृदयसे त्याग करके, साधु-संन्यासीकी तरह होकर एक भगवान्के शरण हो जाय । ‘मैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् मेरे हैं;
मैं और किसीका नहीं हूँ और मेरा कोई नहीं है’‒इस भावसे रात-दिन भगवान्के भजनमें लग जाय तो कल्याण हो जायगा
। भगवान्के चरणोंके शरण होनेसे सब काम ठीक हो जाता है ।
श्रोता‒उसके मनमें मृत्युका बड़ा भय है ।
स्वामीजी‒मृत्युसे डरे नहीं, प्रत्युत मृत्युको साक्षात् भगवान्का स्वरूप समझे कि मृत्युरूपसे
साक्षात् स्वयं भगवान् आयेंगे । ‘वासुदेवः सर्वम्’‒सब कुछ भगवान् ही हैं तो क्या मृत्यु भगवान् नहीं हैं ?
भगवान्के भक्त मौतको भी भगवान्का स्वरूप समझते हैं । सब कुछ
भगवान् ही हैं, केवल राग-द्वेषके कारण ही संसार दीख रहा है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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