(गत ब्लॉगसे आगेका)
अधिकार
प्राप्त करनेकी इच्छा जन्म-मरणका हेतु है और नरकोंमें ले जानेवाली है । हमने देखा है
कि एक मोहल्लेका कुत्ता दूसरे मोहल्लेमें जाता है तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसको काटनेके
लिये दौड़ता है । दोनों कुत्ते आपसमें लड़ते हैं । आगन्तुक कुत्ता नीचे गिर जाय, पैर ऊपर कर दे, नम्रता स्वीकार
कर ले तो उस मोहल्लेका कुत्ता उसके ऊपर खड़ा होकर राजी हो जाता है । कारण कि वह उस मोहल्लेपर
अपना अधिकार मानता है, पर आगन्तुक कुत्ता उस मोहल्लेपर अपना अधिकार नहीं मानता, उसके सामने नम्रता
स्वीकार कर लेता है तो लड़ाई मिट जाती है । इससे सिद्ध होता है कि अधिक अधिकार पानेकी
लालसा तो कुत्तोंके भीतर भी रहती है । ऐसी ही लालसा यदि मनुष्योंके भीतर भी रहे तो
मनुष्यता कैसी ?
अधिक
अधिकार पानेकी लालसा नीच मनुष्योंमें होती है । जो श्रेष्ठ मनुष्य
होते हैं, वे अपने कर्तव्यका
ही उत्साहपूर्वक तत्परतासे पालन करते हैं । कर्तव्यका पालन करनेसे उनका अधिकार स्वतः
ऊँचा हो जाता है ।
वास्तवमें देखा
जाय तो स्त्रियोंका अधिकार कम नहीं है । वे घरकी मालकिन, गृहलक्ष्मी कहलाती
हैं । घरके जितने भी लोग बाहर काम-धंधा करते हैं, वे आकर स्त्रियोंका ही आश्रय
लेते हैं । स्त्रियों घरभरके प्राणियोंको आश्रय देनेवाली होती हैं । वे सबकी सेवा करती
हैं, सबका पालन करती
हैं । अतः उनका अधिकार ज्यादा है । परन्तु जब वे अपने कर्तव्यसे
च्युत हो जाती हैं, तभी उनके मनमें
अधिक अधिकार पानेकी लालसा पैदा होती है ।
प्रश्न‒आजकल मँहगाईके जमानेमें स्त्री भी नौकरी करे तो क्या हर्ज है ?
उत्तर‒स्त्रीका
हृदय कोमल होता है, अतः वह नौकरीका
कष्ट, ताड़ना, तिरस्कार
आदि नहीं सह सकती । थोड़ी भी विपरीत बात आते ही उसके आँसू
आ जाते हैं । नौकरीको चाहे गुलामी कहो, चाहे दासता कहो, चाहे तुच्छता
कहो, एक ही बात है
। गुलामीको पुरुष तो सह सकता है, पर स्त्री नहीं सह सकती । अतः
नौकरी, खेती, व्यापार आदिका
काम पुरुषोंके जिम्मे है और घरका काम स्त्रियोंके जिम्मे है । अतः स्त्रियोंकी प्रतिष्ठा, आदर घरका काम
करनेमें ही है । बाहरका काम करनेमें स्त्रियोंका तिरस्कार है । यदि स्त्री प्रतिष्ठासहित उपार्जन करे तो कोई हर्ज नहीं है अर्थात्
वह अपने घरमें ही रहकर जीविका-उपार्जन कर सकती है; जैसे‒स्वेटर आदि
बनाना, कपडे सीना, पिरोना, बेलपत्ती आदि
निकालना, भगवान्के चित्र
सजाना आदि । ऐसा काम करनेसे वह किसीकी गुलाम, पराधीन नहीं रहेगी ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘गृहस्थमें
कैसे रहें ?’ पुस्तकसे
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