अविनाशी और नाशवान‒ये दो ही तत्त्व हैं । नाशवान् तत्त्वकी प्राप्तिके
लिये तो चौरासी लाख योनियाँ हैं, पर अविनाशी तत्त्वकी प्राप्तिके लिये एक मनुष्ययोनि ही है ।
इस मनुष्ययोनिमें आकर भी आप अपना समय धनका संग्रह करने ओर भोग भोगनेमें लगा दोगे तो
फिर अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति कब करोगे ?
यह बात खास सोचनेकी है । अभी अविनाशी तत्त्व अपने अधिकारमें
है । वह अविनाशी तत्व मिलता है‒दूसरोंकी सेवा करनेसे,
दूसरोंका हित चाहनेसे‒‘ते प्राप्नुवन्ति
मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२ । ४) ।
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हमारा लाभ हो जाय‒इस स्वार्थकी वृत्तिसे हमारा बड़ा नुकसान है । मिलेगा कुछ नहीं
और असली लाभसे वंचित रह जायँगे । हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति दूसरोंके हितके लिये होनी
चाहिये । अपने स्वार्थकी वृत्ति बहुत पतन करनेवाली है;
परन्तु हरेक काम करनेमें यही वृत्ति मुख्य रहती है कि मेरेको
सुख कैसे हो, लाभ कैसे हो ? होना यह चाहिये कि दूसरोंको लाभ कैसे हो ?
दूसरोंका दुःख कैसे दूर हो ?
कोई भी काम करें तो ‘मेरेको क्या फायदा होगा’‒इसकी जगह यह सोचें
कि ‘दूसरोंको क्या फायदा होगा’ । जिस कामसे दूसरेको लाभ नहीं होगा,
वह काम हम नहीं करेंगे । इस प्रकार भाव बदले बिना शान्ति नहीं
मिलेगी । आपका उद्देश्य दूसरोंका हित करनेका होगा तो आपका हित अपने-आप होगा,
इसमें सन्देह नहीं है ।
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आपको अपने निर्वाहकी चिन्ता करनेकी जरूरत नहीं है । आपके निर्वाहका
प्रबन्ध पहलेसे है । जिस परमात्माने जन्म दिया है,
उसपर आपका पालन करनेकी जिम्मेवारी है । सबके हितका भाव रखनेसे
आपकी जो उन्नति होगी, वह स्वार्थका भाव रखनेसे नहीं होगी । दूसरेका हित न कर सको तो
कम-से-कम इस बातका ख्याल रखो कि मेरे द्वारा किसीका अहित,
नुकसान न हो जाय । हरदम यह सावधानी रखो । आपके लोक और परलोक
दोनों सुधर जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है ।
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आप घरमें रहते हुए अपनेको मालिक न मानकर सेवक मानें तो आपके
द्वारा बहुत हित होगा और स्वाभाविक बहुत उन्नति होगी । जो अच्छे-अच्छे सन्त हुए हैं,
उनमें कोई गुण था तो वह था‒स्वार्थका त्याग । दीखनेमें स्वार्थ
अच्छा दीखता है, पर वास्तवमें स्वार्थी आदमीकी उन्नति नहीं होती । स्वार्थी आदमीका
स्वार्थ सिद्ध नहीं होता । स्वार्थबुद्धि तो पशु-पक्षियोंमें भी होती है । पशु-पक्षी
भी धूपसे अपनी रक्षा करनेके लिये छायामें बैठते हैं,
शीत तथा वर्षासे अपनी रक्षा करते हैं;
परन्तु वे अपना कल्याण नहीं कर सकते । कल्याण वही कर सकता है,
जो अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरेका हित करता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |