(गत ब्लॉगसे आगेका)
आपके दो खास काम हैं‒भगवान्को याद रखना और दूसरोंको सुख पहुँचाना
। दूसरोंको सुख न पहुँचा सको तो कम-से-कम किसीको दुःख मत पहुँचाओ । आप किसीके दुःखमें
निमित्त मत बनो । किसीको बुरा मत समझो, किसीका बुरा मत चाहो और किसीका बुरा मत करो‒यह मामूली बात नहीं
है, बहुत ऊँची बात है । इससे आपका अन्तःकरण निर्मल होगा,
नहीं तो अन्तःकरण निर्मल नहीं होगा । अन्तःकरण निर्मल हुए बिना
अच्छी बातें पैदा नहीं होंगी, पैदा होंगी भी तो ठहरेंगी नहीं । अन्तःकरण जितना निर्मल होगा,
उतनी आपकी स्वाभाविक उन्नति होगी‒यह सिद्धान्त है । भला करना
इतनी ऊँची बात नहीं है । बुराईका त्याग करनेसे भलाई स्वतः होगी । दूसरोंकी सेवामें
रुपये खर्च करना ज्यादा ऊँची बात नहीं है । यह तो एक टैक्स है । टैक्स देना दण्ड है,
कोई ऊँची बात नहीं है । आपने रुपया इकट्ठा किया है तो टैक्स
दो, दूसरोंकी सेवा करो ।
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मैंने सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) की एक पुरानी बात सुनी
है । सेठजी गोहाटी गये थे । वहाँ व्याख्यान देते समय उन्होंने गीताके ‘निर्वैरः सर्वभूतेषु......’ (११ ।
५५)‒इस पदकी विस्तारसे व्याख्या
करते हुए कहा कि किसी भी प्राणीके साथ अपने हृदयमें वैर नहीं रखना चाहिये । वैरभाव,
ईर्ष्या रखनेसे अन्तःकरण बहुत अशुद्ध होता है । वहाँ सत्संगमें
दो धनी वृद्ध सज्जन बैठे थे । उनकी आपसमें खटपट थी । उनमेंसे एक बोला कि ‘मेरा दुनियामें
किसीके साथ वैर नहीं है, केवल एक व्यक्तिके साथ वैर है । मैं बूढ़ा हो गया हूँ, मरनेवाला
हूँ । वैर साथमें रखकर जाना ठीक नहीं है । इसलिये आजसे मैं वैर यहीं छोड़ देता हूँ ।
अब मैं उसे कभी दुःख नहीं पहुँचाऊँगा । उसका बुरा
कभी नहीं चाहूँगा, नहीं करूँगा ।’ दूसरा व्यक्ति भी वहीं बैठा हुआ था । सेठजीने उससे पूछा तो उसने
कहा कि ‘यह आज सीधा हुआ है ! इसने मेरेको बहुत दुःख दिया है । आज यह कहता है कि मैं
वैर नहीं रखूँगा, तो यह वैर नहीं मिट सकता ।’
सेठजीने कहा कि ‘मनमें अच्छी बात रखो । किसीके प्रति बुरा भाव
लेकर जाना अच्छा नहीं है ।’ वह बोला कि ‘महाराज, यह तो साथमें ही जायगा ।’
सेठजीने कहा कि ‘साथमें बढ़िया चीज लेकर जाओ,
वैर क्यों लेकर जाओ !’
पहलेवाले सज्जनके मनमें बड़ा दुःख हुआ कि मैं वैर छोड़ना चाहता
हूँ, पर यह वैर छोड़ता नहीं ! यह वैर नहीं छोड़ेगा तो मेरा वैर छूटेगा नहीं ! अब मैं
क्या करूँ ? वे घबरा गये और रोने लग गये । सेठजीने उसकी पीठ ठोंकते हुए कहा
कि ‘मेरा स्वभाव नहीं है, फिर भी कहता हूँ कि वह भले ही वैर रखे,
पर तुम्हारा वैर तो निकल गया !’
सेठजीने दूसरे व्यक्तिसे कहा कि ‘मैं तुम्हें भी कहता हूँ कि तुम भी वैर छोड़ दो ।’
उसने विचार किया कि दूसरेने तो वैर छोड़ दिया और सेठजीने भी कह
दिया कि तुम्हारा वैर निकल गया, तो फिर मैं अकेला ही वैर क्यों रखूँ ? ऐसा सोचकर उसने भी कह
दिया कि ‘मैं भी वैर छोड़ता हूँ ।’
दोनोंने आपसमें मिलकर एक-दूसरेको नमस्कार कर लिया । आगे चलकर
एक बार जब स्वर्गाश्रममें वटवृक्षके नीचे सत्संग हो रहा था,
तब उस व्यक्ति (जिसने सर्वप्रथम वैर छोड़ा था)-के बेटे ने सेठजीको
बताया कि मेरे पिताजीका शरीर छूटा तो उनके प्राण दशम द्वारसे निकले ! उनकी वही गति
हुई, जो योगियोंकी होती है !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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