उत्पन्न और नष्ट होनेवाली वस्तुको लेकर आप अपनेमें
बड़प्पन अथवा नीचपनका अनुभव करते हैं‒यह बहुत बड़ी भूल है । जैसे कोई धनको लेकर अपनेको बड़ा मानता है,
कोई मकानको लेकर अपनेको बड़ा मानता है,
कोई बढ़िया कपड़े पहनकर अपनेको बड़ा मानता है,
कोई ऊँचा पद प्राप्त करके अपनेको बड़ा मानता है और कोई इन चीजोंके
न मिलनेसे अपनेको छोटा मानता है । यह बहुत बड़ी भूल है । आप
स्वयं परमात्माके अंश, चेतन हैं और जड़ चीजोंको लेकर आप अपनेको बड़ा-छोटा
मानते हैं‒यह आपकी तुच्छता है । जड़ चीजोंको लेकर अपनेको बड़ा मानना भी तुच्छता है और छोटा मानना भी तुच्छता है
। आप तो इन चीजोंका उपार्जन करनेवाले हैं,
इनका उपयोग करनेवाले हैं,
इनके आदि और अन्तको जाननेवाले हैं,
फिर आप इनके गुलाम क्यों हो जाते हैं ?
धन मिलता है और बिछुड़ जाता है‒इस प्रकार जिसके आदि और अन्तको
आप जानते हैं, उसके मिलनेसे अपनेको बड़ा या छोटा मानना कितनी गलती है । थोड़ा
विचार करें तो यह बात अक्लमें आ जाती है कि अगर पद मिलनेसे हम बड़े हुए तो वास्तवमें
हम छोटे ही रहे, पद बड़ा हुआ । रुपये मिलनेसे हम बड़े हुए तो बड़े रुपये ही हुए,
हम बड़े नहीं हुए । अतः इस बातको आप आज ही और अभी मान लें कि
अब हम आने-जानेवाली वस्तुओंको लेकर अपनेको बड़ा और छोटा नहीं मानेंगे ।
स्वयं आप बहुत बड़े हैं । साधारण रीतिसे तो आप भगवान्के अंश
हैं और भगवान्की भक्तिमें लग जायँ तो भगवान्के मुकुटमणि हैं । भगवान् कहते हैं‒
‘मैं तो हूँ भगतनका दास, भगत
मेरे मुकुटमणि ।’
जिसे भगवान् अपना मुकुटमणि कहते हैं,
वही आप हैं । भक्त कब बनता है ? जड़ताकी
दासता छूटी और भक्त बना । इसलिये आप अभी यह बात धारण कर लें कि अब हम उत्पत्ति-विनाशवाली तुच्छ चीजोंको
लेकर अपनेको बड़ा और छोटा नहीं मानेंगे । आप इन चीजोंका उपार्जन
करें, इनका उपयोग करें, इन्हें
काममें लायें; पर इनके द्वारा अपनेको बड़ा-छोटा मत मानें । इन चीजोंको
लेकर अपनेमें फूँक भर जाती है, यह गलती होती है । अब बताइये, इसे माननेमें कोई कठिनता है क्या ?
कठिनता नहीं है तो अभी-अभी,
इसी क्षण मान लें । इसमें देरीका काम नहीं है । कोई तैयारी करनी
पड़े, कोई विद्वत्ता लानी पड़े, कोई बल लाना पड़े, कोई योग्यता लानी पड़े‒इसकी बिलकुल जरूरत नहीं है । अभी इसी क्षण
स्वीकार कर लें कि जड़ चीजोंसे हम अपनेको बड़ा नहीं मानेंगे । जड़ चीजोंको लेकर अपनेको बड़ा मानना महान् पराधीनता है । पराधीन
व्यक्तिको स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता‒‘पराधीन सपनेहुँ सुखु
नाहीं’ (मानस,
बाल॰ १०२ । ५) । हम तो भगवान्के हैं और भगवान् हमारे हैं‒ऐसा मान लेंगे
तो आप वास्तवमें बड़े हो जायँगे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे |