(गत ब्लॉगसे आगेका)
यदि अन्नपर गर्भपात करनेवाले पापीकी दृष्टि भी पड़ जाय तो वह
अन्न अभक्ष्य (न खानेयोग्य) हो जाता है‒
भ्रूणघ्नोवेक्षितं चैव संस्पृष्टं चाप्युदक्यया ।
पतत्रिणाऽवलीढं च शुना
संस्पृष्टमेव च ॥
(मनुस्मृति
४ । २०८)
‘गर्भहत्या करनेवालेका देखा हुआ, रजस्वला स्त्रीका स्पर्श किया हुआ,
पक्षीका खाया हुआ और कुत्तेका स्पर्श किया हुआ
अन्न न खाये ।’
मनुष्य-शरीरको बड़ा दुर्लभ बताया गया है‒
बड़े भाग मानुष तनु पावा ।
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा ॥
(मानस, उत्तर॰ ४३ । ४)
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुरः ।
(श्रीमद्भा॰ ११ । २ । २९)
परमकृपालु भगवान् विशेष कृपा करके जीवको मनुष्य-शरीर देते हैं‒
कबहुँक करि करुना नर देही ।
देत ईस बिनु हेतु सनेही ॥
(मानस, उत्तर॰ ४४ । ३)
जीव मनुष्य-शरीरमें आकर अपना और दूसरोंका भी उद्धार कर सकता
है । वह सबकी सेवा कर सकता है, यहाँतक कि भगवान्की भी सेवा कर सकता है ! परन्तु अपनी भोगेच्छाके
वशीभूत होकर उस जीवको ऐसा दुर्लभ मौका न मिलने देना,
उसको मनुष्य-शरीरमें न आने देना,
उसको जन्म ही न लेने देना,
जन्म लेनेसे पहले ही उसकी हत्या कर देना कितना महान् पाप है
! उस जीवके साथ कितना घोर अन्याय है !
ऐसा महान् पाप करनेवालोंको घोर नरकों तथा नीच योनियोंकी
भयंकर यातना भोगनी पड़ेगी । उनको कभी मनुष्यजन्म मिल जाय तो उसमें उनकी सन्तान नहीं
होगी । सन्तानके बिना वे रोते रहेंगे ! ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, द्वितीय अध्याय) में आया है कि मूल प्रकृतिने अपने गर्भको ब्रह्माण्ड-गोलकके
जलमें फेंक दिया तो आगे उससे प्रकट होनेवाली लक्ष्मी,
सरस्वती, राधा तथा राधासे प्रकट होनेवाली गोपियोंमेंसे किसीकी भी कोई
सन्तान नहीं हुई ।
शंका‒गर्भपात
करनेसे अगले जन्मोंमें सन्तान नहीं होगी तो यह अभीष्ट ही है अर्थात् जनसंख्या नहीं
बढ़ेगी, फिर सन्तान न होनेसे
क्या हानि है ?
समाधान‒सन्तानके सुखसे वंचित होनेकी अवस्थाका अनुभव उन्हीं गृहस्थोंको हो सकता है,
जिनकी कोई सन्तान हुई ही नहीं । मनुष्यमें पुत्रैषणा,
वित्तैषणा और लोकैषणा‒ये तीन मुख्य एषणाएँ (इच्छाएँ) मानी गयी
हैं । जिनकी सन्तान नहीं होती, वे सन्तानके लिये जगह-जगह भटकते हैं,
डॉक्टरोंके पास जाते हैं,
सन्त-महात्माओंके पास जाते हैं,
तीर्थोंमें जाते हैं,
औषध लेते हैं, मन्त्र-जप करते हैं,
देव-देवताओंकी मनौती करते हैं,
ईश्वरसे प्रार्थना करते हैं,
आदि- आदि ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे
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