(गत ब्लॉगसे आगेका)
वेदमें आये ‘पुरुषसूक्त’ में
पुरुषोत्तमका वर्णन हुआ है । गीतामें भगवान् कहते हैं कि वेदोंमें इन्द्ररूपसे जिस
परमेश्वरका वर्णन हुआ है, वह भी मैं ही हूँ, इसलिये स्वर्गप्राप्ति चाहनेवाले मनुष्य यज्ञोंके द्वारा मेरा ही पूजन करते हैं‒‘त्रैविद्यां मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते
।’ (गीता ९ । २०)
वेदोंमें सकामभाववाले मन्त्रोंकी संख्या तो अस्सी हजार है, पर मुक्त करनेवाले अर्थात् निष्कामभाववाले मन्त्रोंकी संख्या बीस हजार ही है, जिसमें चार हजार मन्त्र ज्ञानकाण्डके और सोलह हजार मन्त्र उपासनाकाण्डके हैं ।
इसलिये गीतामें कुछ श्लोक ऐसे भी आते हैं, जिनमें वेदोंकी निन्दा प्रतीत होती है; जैसे‒‘यामिमां पुष्पितां वाचम्’, ‘वेदवादरताः’ ( २ । ४२) । कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् । क्रियाविशेषबहुलां
भोगैश्वर्यगतिं प्रति ॥ (२ । ४३), ‘त्रैगुण्यविषया वेदाः’ (२ । ४५), ‘जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते’ (६ । ४४), ‘एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते’ (९ । २१), ‘न वेदयज्ञाध्ययनैर्न........द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर’ (११ । ४८), नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेव्यया । शक्य एवविधो द्रष्टुं
दृष्टवानसि मां यथा ॥ (११ । ५३), ‘छन्दासि यस्य पर्णानि’ (१५ । १) आदि । वास्तवमें यह वेदोंकी निन्दा नहीं है, प्रत्युत वेदोंमें आये सकामभावकी निन्दा है ।
संसारके मनुष्य प्रायः मृत्युलोकके भोगोंमें ही लगे रहते हैं
। परन्तु उसमें भी जो विशेष बुद्धिमान् कहलाते हैं, उनके हृदयमें भी नाशवान् वस्तुओंका महत्त्व रहनेके कारण जब वे वेदोंमें कहे हुए
सकाम कर्मोंका तथा उनके फलका वर्णन सुनते हैं, तब वे वेदोंमें श्रद्धा-विश्वास होनेके कारण यहाँके भोगोंकी इतनी परवाह न करके
स्वर्गप्राप्तिके लिये वेदोंमें वर्णित यज्ञोंके अनुष्ठानमें लग जाते हैं । उन सकाम
अनुष्ठानोंके फलस्वरूप वे लोग स्वर्गमें जाकर देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं, जो मनुष्यलोकके भोगोंकी अपेक्षा बहुत विलक्षण हैं । वे लोग स्वर्गके प्रापक जिन
पुण्योंके फलस्वरूप स्वर्गमें जाते हैं, उन पुण्योंके समाप्त होनेपर
वे पुनः मृत्युलोकमें लौट आते हैं‒‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं
विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति’ (गीता ९ । २१) । सकामभावके कारण ही मनुष्य बार-बार जन्मता-मरता है‒‘गतागतं
कामकामा लभन्ते’ (गीता ९ । २१) । इसलिये भगवान्ने सकामभावकी निन्दा की है ।
वेदोंमें सकामभावका वर्णन होनेका कारण यह है कि वेद
श्रुतिमाता है और माता सब बालकोंके लिये समान होती है । संसारमें सकामभाववाले मनुष्योंकी
संख्या अधिक रहती है । अतः वेदमाताने अपने बालकोंकी अलग-अलग रुचियोंके अनुसार
लौकिक और पारमार्थिक सब तरहकी सिद्धियोंके उपाय बताये हैं ।
भगवान्ने वेदोंको संसारवृक्षके पत्ते बताया है‒‘छन्दांसि यस्य पर्णानि’ और वेदोंकी वाणीको ‘पुष्पित’ कहा है‒‘यामिमां
पुष्पितां वाचम्’ । यद्यपि निषिद्ध कर्मोंको करनेकी अपेक्षा वेदविहित सकाम अनुष्ठानको
करना श्रेष्ठ है, तथापि उससे मुक्ति नहीं हो सकती । अतः साधकको वैदिक सकाम अनुष्ठानरूप पत्तों और पुष्पोंमें तथा नाशवान्
फलमें न फँसकर संसारवृक्षके मूल‒परमात्माका ही आश्रय लेना चाहिये । वेदोंका
वास्तविक तत्त्व संसार या स्वर्ग नहीं है, प्रत्युत परमात्मा ही हैं‒‘वेदैश्च सर्वेरहमेव वेद्यः’ (गीता १५ । १५) । महाभारतमें आया है‒
सांगोपांगनपि यदि यश्च
वेदानधीयते ।
वेदवेद्यं न जानीते वेदभारवहो हि सः ॥
(शान्ति॰ ३१८ । ५०)
‘सांगोपांग वेद पढ़कर भी जो वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य
परमात्माको नहीं जानता, वह मूढ़ केवल वेदोंका बोझ ढोनेवाला है ।’
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे |