प्रायः कई लोगोंकी यह शिकायत रहती है कि शास्त्रकारोंने स्त्रियोंकी
बड़ी निन्दा की है । इस विषयमें गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो पता लगता है कि स्त्रीके
दो रूप है-कामिनीरूप और मातृरूप । विभिन्न धर्मोंमें जहाँ
भी स्त्रियोंकी निन्दा की गयी है, वह कामिनी अर्थात् भोग्यारूपकी ही निन्दा है, मातृरूपकी नहीं । मातृरूपसे तो स्त्रीको पुरुषसे भी सहस्रगुना श्रेष्ठ माना गया है‒
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं तु पितॄता गौरवेणातिरिव्यते ॥
(मनु॰ २ । १४५)
‘दस उपाध्यायोकी अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्योंकी अपेक्षा पिता और सहस्र पिताओंकी अपेक्षा माताका
गौरव अधिक है ।’
संन्यासीके लिये कहा गया है कि वह हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्रीका
तो कहना ही क्या है, लकड़ीसे बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करे और हाथसे स्पर्श करना
तो दूर रहा, पैरसे भी स्पर्श न करे‒
पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।
(श्रीमद्भा॰ ११ । ८ । १३)
परन्तु उसी संन्यासीके लिये कहा गया है कि यदि उसकी माता सामने
आ जाय तो उसे आदरपूर्वक प्रणाम करे‒
सर्ववन्द्येन यतिना प्रसूर्वन्द्या प्रयत्नतः ॥
(स्कन्दपु॰, काशी॰ ११ । ५०)
सभी गुरुजनोंमें माताको परम गुरु माना गया है‒
गुरूणां
चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः ।
(महा॰, आदि॰ १९५ । १६)
‘नास्ति
मातुः परो गुरुः’
(अत्रिसंहिता १५०)
‘नास्ति मातृसमो गुरुः’
(महा॰, शान्ति॰ १०८ । १८)
शास्त्रमें यहाँतक आया है‒
पतिता गुरवस्त्याज्या माता च न कथञ्जन ।
गर्भधारणपोषाभ्यां तेन माता गरीयसी ॥
(स्कन्दपु॰, मा॰ कौ॰ ६ । १०७; मत्मपु॰ २२७ । १५०)
‘पतित गुरु भी त्याज्य है, पर माता किसी प्रकार भी त्याज्य नहीं है । गर्भकालमें धारण-पोषण
करनेके कारण माताका गौरव गुरुजनोंसे भी अधिक है ।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे |