(गत ब्लॉगसे आगेका)
जिसके गलेमें तुलसी,
रुद्राक्ष अथवा बद्ध पारदकी माला होती है,
उसका भूत-प्रेत स्पर्श नहीं कर सकते । एक सज्जन प्रातः लगभग
चार बजे घोड़ेपर बैठकर किसी आवश्यक कामके लिये दूसरे गाँव जा रहे थे । ठण्डीके दिन थे
। सूर्योदय होनेमें लगभग डेढ़ घण्टेकी देरी थी । जाते-जाते वे ऐसे स्थानपर पहुँचे,
जो इस बातके लिये प्रसिद्ध था कि वहाँ भूत-प्रेत रहते हैं,
। वहाँ पहुँचते ही उनके सामने अचानक एक प्रेत पेड़-जैसा लम्बा
रूप धारण करके रास्तेमें खड़ा हो गया । घोड़ा बिचक जानेसे वे सज्जन घोड़ेसे गिर पड़े ।
उनके दोनों हाथोंमें मोच आ गयी । पर वे सज्जन बड़े निर्भय थे;
अतः पिशाचसे डरे नहीं । जबतक सूर्योदय नहीं हुआ,
तबतक वह पिशाच उनके सामने ही खड़ा रहा,
पर उसने उनपर आक्रमण नहीं किया,
उनका स्पर्श नहीं किया;
क्योंकि उनके गलेमें तुलसीकी माला थी । सूर्योदय होनेपर पिशाच
अदृश्य हो गया और वे सज्जन पुनः घोड़ेपर बैठकर अपने घर वापस आ गये ।
सूर्यास्तसे लेकर आधी राततक तथा मध्याह्नके समय भूत-प्रेतोंमें
ज्यादा बल रहता है, उनका ज्यादा जोर चलता है । यह सबके अनुभवमें भी आता है कि रात्रि
और मध्याह्नके समय श्मशान आदि स्थानोंमें जानेसे जितना भय लगता है,
उतना भय सबेरे और संध्याके समय नहीं लगता । अगर रात्रि अथवा
मध्याह्नके समय किसी एकान्त, निर्जन स्थानपर जाना पड़े और वहाँ पीछेसे कोई (प्रेत) पुकारे
अथवा ‘मैं आ जाऊँ’‒ऐसा कहे तो उत्तरमें कुछ नहीं बोलना चाहिये,
प्रत्युत चलते-चलते भगवन्नाम-जप,
कीर्तन, विष्णुसहस्ननाम, हनुमानचालीसा, गीता आदिका पाठ शुरू कर देना चाहिये । उत्तर न मिलनेसे वह प्रेत
वहींपर रह जायगा । अगर हम उत्तर देंगे, ‘हाँ आ जा’‒ऐसा कहेंगे तो वह प्रेत हमारे पीछे लग जायगा ।
जहाँ प्रेत रहते हैं,
वहाँ पेशाब आदि करनेसे भी वे पकड़ लेते हैं;
क्योंकि उनके स्थानपर पेशाब करना उनके प्रति अपराध है । अतः
मनुष्यको जहाँ-कहीं भी पेशाब नहीं करना चाहिये ।
हमें दुर्गतिमें, प्रेतयोनिमें न जाना पड़े‒इस बातकी सावधानीके लिये और गयाश्राद्ध
करके, पिण्ड-पानी देकर प्रेतात्माओंके उद्धारकी प्रेरणा करनेके लिये
ही यहाँ प्रेतविषयक चर्चा की गयी है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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