जितने भी पाप होते हैं, वे
किसीके मानने और न माननेपर निर्भर नहीं करते । पापके विषयमें अर्थात् अमुक कार्य पाप
है‒इसमें वेद, पुराण,
स्मृति, शास्त्र
और अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुषोंके वचन ही प्रमाण हैं । गर्भस्राव (सफाई),
गर्भपात या भ्रूणहत्या हिन्दू-धर्मके,
भारतीय संस्कृतिके सर्वथा विरुद्ध है । संसारका कोई भी श्रेष्ठ
धर्म इस पापको समर्थन नहीं देता और न ही दे सकता है । कारण कि यह काम मनुष्यताके विरुद्ध
है । क्रूर और हिंसक पशु भी ऐसा काम नहीं करते ।
पृथ्वीमें मनुष्यजाति सर्वश्रेष्ठ है
। संसारमें जितने भी प्राणी हैं,
उन सबकी रक्षा, सेवा, पालन-पोषण करनेका अधिकार,
योग्यता, सामर्थ्य, सामग्री और दयाभाव मनुष्यमें ही है । उस मनुष्यकी हत्या कर देना
बहुत बड़ा पाप है । मनुष्यमें भी बच्चेकी हत्या कर देना सबसे बड़ा पाप है;
क्योंकि बच्चा निरपराध,
निर्बल, निर्दोष होता है । परन्तु जिस बच्चेने अभी जन्म ही नहीं लिया,
जो अभी गर्भमें ही है,
उसकी हत्या कर देना महान् भयंकर पाप है ।
गर्भमें जीव निर्बल और असहाय अवस्थामें रहता है ।
वह अपने बचावके लिये कोई उपाय भी नहीं कर सकता तथा प्रतीकार भी नहीं कर सकता । वह अपनी
हत्यासे बचनेके लिये पुकार भी नहीं सकता,
रो भी नहीं सकता, चिल्ला
भी नहीं सकता । उसका कोई अपराध, कसूर भी नहीं है । वह सर्वथा निर्दोष है । ऐसी अवस्थामें
उस निरपराध-निर्दोष शिशुकी हत्या कर देना कितना महान् पाप है !
वैर-विरोधको लेकर किये जानेवाले युद्धमें भी शत्रुकी हत्याका
ही उद्देश्य रहता है, फिर भी उसमें निहत्थे सैनिकपर शस्त्र नहीं चलाया जाता । पहले उसे सावधान
करते हुए युद्धके लिये ललकारते हैं, फिर शस्त्र चलाते हैं । परन्तु गर्भस्थ शिशु तो सर्वथा असहाय
होकर पड़ा हुआ है । उसको इस बातका ज्ञान ही नहीं है कि कोई मुझे मार रहा है ! ऐसी अवस्थामें
उस मूक प्राणीकी दर्दनाक हत्या कर देना कितना भयंकर पाप है ?
कितना घोर अन्याय है ?
एक कहावत है कि अपने द्वारा लगाया हुआ विषवृक्ष भी काटा नहीं
जाता‒‘विषवृक्षोऽपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम् ।’
जिस गर्भको स्त्री-पुरुष मिलकर पैदा करते हैं,
उसकी अपने ही द्वारा हत्या कर देना कितना महान् पाप है ! कसूर (असंयम) तो खुद करते हैं, पर
हत्या बेकसूर गर्भकी करते हैं, कितना बड़ा अन्याय है ! जो माता-पिता अपने बच्चेका
स्नेहपूर्वक पालन और रक्षा करनेवाले होते हैं, वे
ही अपने गर्भस्थ बच्चेकी हत्या कर देंगे तो किससे रक्षाकी आशाकी जायगी ?[*]
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे
रक्षत्येव सुतं माता नान्यः पोष्टा विधानतः ॥
(महाभारत, शान्ति॰ २६६ । २९)
‘पुत्र असमर्थ हो या समर्थ, दुर्बल हो या हृष्ट-पुष्ट, माता उसकी रक्षा करती ही है । माताके सिवा दूसरा
कोई विधिपूर्वक पुत्रका पालन-पोषण नहीं कर सकता ।’
नास्ति मातृसमा छाया
नास्ति मातृसमा गतिः ।
नास्ति मातृसमं त्राणं
नास्ति मातृसमा प्रिया ॥
(महाभारत, शान्ति॰ २६६ । ३१)
बच्चेके लिये माताके समान दूसरी कोई छाया नहीं
है अर्थात् माताकी छत्रछायामें जो सुख है, वह कहीं नहीं है । माताके तुल्य दूसरा कोई सहारा नहीं है, माताके सदृश अन्य कोई रक्षक नहीं है तथा माताके समान दूसरी कोई प्रिय वस्तु नहीं
है ।’
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