(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्को याद
करो । भगवान्को याद करना सम्पूर्ण दोषोंके नाशका उपाय है । राग-द्वेष हो जायँ तो आर्त
होकर ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’
पुकारों । जैसे डाकू लूटते हों तो आदमी पुकारता है,
ऐसे आर्त होकर भगवान्को पुकारो । ऐसा करनेसे जरूर फर्क पड़ेगा
। भगवान्से कहनेपर हरेक दोष दूर होता है ।
राग-द्वेषसे बड़ी
हानि होती है ! जब राग होता है, तब द्वेष पैदा हो जाता है । नाशवान् पदार्थोंमें राग होनेसे
अविनाशी (भगवान्)-के साथ द्वेष हो जाता है,
पर साधकको इसका पता नहीं लगता । जब भोग अच्छे लगते हैं,
तब भगवान् अच्छे नहीं लगते । अतः थोड़ा भी राग उत्पन्न हो तो
‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारो । अवगुणोंका नाश करनेके लिये और सद्गुणोंको लानेके लिये‒दोनोंके
लिये भगवान्को पुकारो । उनकी कृपासे ही अवगुणोंका नाश और सद्गुणोंकी रक्षा होती है
। चलते-फिरते, उठते-बैठते हरदम ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ पुकारते रहो तो भगवान् सब तरहसे रक्षा करेंगे । जब अपने उद्योगसे
राग-द्वेष दूर न हों, तब दुःखी होकर भगवान्को पुकारो । भगवान्की कृपासे बड़ी सरलतासे
सब काम हो जायगा ।
मैं राग-द्वेषको जीत सकता हूँ‒ऐसा अभिमान जिसके भीतर होता है,
वह भगवान्का सहारा नहीं ले सकता । जबतक मनुष्य अपना बल समझता
है, तबतक वह परास्त होता रहता है । गोस्वामीजी महाराज लिखते हैं‒
हौं हारी करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै ।
तुलसिदास बस होइ तबहिं
जब प्रेरक प्रभु
बरजै ॥
(विनयपत्रिका
८९ । ४)
अतः पहले अपना बल लगाकर इन दोषोंको दूर करो । जब दूर नहीं हों,
तब निर्बल होकर भगवान्को ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’
पुकारो । इसके समान दूसरा कोई उपाय नहीं है । पर अपनेमें बलका
अभिमान नहीं होना चाहिये । अपने बलका अभिमान होगा तो सच्ची प्रार्थना कर सकोगे नहीं,
देरी लगेगी । अपनेमें बल,
बुद्धि, विद्या, साधन, वर्ण, आश्रम आदिका अभिमान होगा तो यह उपाय काम नहीं देगा ।
भगवान्को पुकारनेमें हार स्वीकार मत करो,
भले ही वर्ष लग जायँ । अन्तमें आपकी विजय जरूर होगी,
इसमें सन्देह नहीं है । अपना समझकर भगवान्को पुकारो । नकली
प्रार्थनाको भी भगवान् असली मानकर स्वीकार कर लेते हैं । अपने बलसे निराश और भगवान्के
बलपर विश्वास‒ये दो बातें होंगी तो जरूर सफलता मिलेगी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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