(गत ब्लॉगसे आगेका)
पहली पूँजी ‘धन-धान्य’ पर विचार किया जाय तो उपार्जन अधिक करना
तो चल जायगा, पर उपार्जनकी अपेक्षा अधिक खर्चा करनेसे काम नहीं चलेगा । इसलिये
आहार-विहारमें छः घण्टे न लगाकर चार घण्टेसे ही काम चला ले और खेती, व्यापार आदिमें आठ घण्टे लगा दे । तात्पर्य है कि आहार-विहारका समय कम करके जीविका-सम्बन्धी
कार्योंमें अधिक समय लगा दे ।
दूसरी पूँजी ‘आयु’ पर विचार किया जाय तो सोनेमें आयु व्यर्थ
खर्च होती है । अतः सोनेमें छः घण्टे न लगाकर चार घण्टेसे ही काम चला ले और भजन-ध्यान
आदिमें आठ घण्टे लगा दे । तात्पर्य है कि जितना कम सोनेसे काम चल जाय, उतना चला ले और नींदका बचा हुआ समय भगवान्के भजन-ध्यान आदिमें लगा दे । इस उपार्जन (साधन-भजन)-की मात्रा तो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही रहनी
चाहिये; क्योंकि हम यहाँ सांसारिक धन-वैभव आदि कमानेके
लिये नहीं आये हैं, प्रत्युत परमात्माकी
प्राप्ति करनेके लिये ही आये हैं । इसलिये दूसरे समयमेंसे जितना समय निकाल सकें, उतना समय निकालकर अधिक-से-अधिक भजन- ध्यान करना चाहिये ।
दूसरी बात, जीविका-सम्बन्धी कर्म करते
समय भी भगवान्को याद रखे और सोते समय भी भगवान्को याद रखे । सोते समय यह समझे कि अबतक चलते-फिरते, बैठकर भजन किया है, अब लेटकर भजन करना है । लेटकर भजन करते-करते नींद आ जाय तो आ
जाय, पर नींदके लिये नींद नहीं लेनी है । इस प्रकार लेटकर भगवत्स्मरण करनेका समय पूरा हो जाय तो फिर
उठकर भजन-ध्यान, सत्संग-स्वाध्याय करे और भगवत्स्मरण करते हुए ही काम-धंधेमें
लग जाय, तो सब-का-सब काम-धंधा भजन हो जायगा ।
यह मनुष्यजन्म केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला
है । इसमें जो कुछ है, वह सब साधन-सामग्री
है । अतः मनुष्य जो कुछ करे, वह सब उपार्जन-ही-उपार्जन होना चाहिये । परमात्मप्राप्तिका
लक्ष्य रखकर कार्य करनेसे, परमात्माकी प्रसन्नताके लिये ही लौकिक-पारलौकिक कार्य करनेसे
हमारा उद्धार तो होता ही है, भगवान्की कमीकी भी पूर्ति होती है ! जैसे, कैकेयी जबतक जीती रही, तबतक भरतजीने उसको ‘माँ’ नहीं कहा । कारण कि भरतजीके मनमें यह बात रही कि जिसने
अपने प्यारे पुत्रको वनवासमें भेज दिया, वह माँ कैसे ? कैकेयीके मनमें
यह बात रही कि भरतलाल मुझे माँ कह दे । यह कमी (घाटा) कैकेयीकी ही रही । ऐसे ही किसी
वक्ताके श्रोता दूसरी जगह सुनने चले जायँ तो यह कमी उस वक्ताकी ही रही । इसी तरह हम किसी वस्तु-व्यक्तिपर श्रद्धा-विश्वास करते हैं तो उतने श्रद्धा-विश्वास
भगवान्के प्रति ही कम हुए । यदि हम संसारपर श्रद्धा-विश्वास नहीं करते तो वह
श्रद्धा-विश्वास भगवान्पर ही होता । इसलिये भगवान्की कमीकी पूर्तिके लिये ही हमें
भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास करने चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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