दिनचर्या
ध्यानयोग, हठयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, अष्टांगयोग, लययोग आदि सभी योगोंकी सिद्धिके लिये दिनचर्याकी बात भगवान्ने
गीतामें बहुत बढ़िया कही है‒
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत ।
न चाति स्वणशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥
युक्ताहारविहारस्य
युक्तचेष्टस्य कर्मसु
।
युक्तस्वप्नावबोधस्य
योगो भवति दुःखहा ॥
(गीता ६ । १६-१७)
‘हे अर्जुन ! यह योग न तो अधिक खानेवालेका और
न बिलकुल न खानेवालेका तथा न अधिक सोनेवालेका और न बिलकुल न सोनेवालेका ही सिद्ध होता
है ।’
‘दुःखोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार
और विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य
चेष्टा करनेवालेका तथा यथायोग्य सोने और जागनेवालेका ही सिद्ध होता है ।’
भोजन इतनी मात्रामें करे, जिससे पेट याद न आये । पेट दो कारणोंसे याद आता है‒ज्यादा खानेसे
और भूखा रहनेसे । अतः जितनी भूख हो, उससे आधा पेट भोजन करे । पेटका पाव हिस्सा जल पीनेके लिये और
पाव हिस्सा श्वास ठीक तरहसे आनेके लिये खाली रखे । अगर मनुष्य भूखसे ज्यादा खा लेगा तो योग-साधन होना दूर रहा, घरका काम-धंधा भी नहीं होगा । पेट भारी होनेसे वह आलस्यमें, नींदमें पड़ा रहेगा । अतः नियमित भोजन करना बहुत आवश्यक है । घूमना-फिरना, आसन-व्यायाम आदि भी यथायोग्य हो, जिससे स्वास्थ्य-निर्माण ठीक
तरहसे हो, मनुष्य जीविका-संबंधी जो काम-धंधा करता है, वह भी यथायोग्य हो तथा नींद लेना और जगना भी नियमित हो ।
हमारे पास चौबीस घण्टे हैं और हमारे सामने चार काम हैं । चौबीस
घण्टोंको चारका भाग देनेसे प्रत्येक कामके लिये छः-छः घण्टे मिल जाते हैं; जैसे‒(१) आहार-विहार अर्थात् भोजन करना और घूमना-फिरना‒इन शारीरिक आवश्यक कार्योंके
लिये छः घण्टे, (२) कर्म अर्थात् खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका-सम्बन्धी कार्योंके लिये छः घण्टे, (३) सोनेके लिये छः घण्टे और (४) जागने अर्थात् भगवत्प्राप्तिके लिये जप, ध्यान, साधन-भजन, कथा-कीर्तन आदिके लिये छः घण्टे
।
इन चार बातोंके भी दो-दो बातोंके दो विभाग हैं‒एक विभाग ‘उपार्जन’
अर्थात् कमानेका है और दूसरा विभाग ‘व्यय’ अर्थात् खर्चेका है । यथायोग्य कर्म और यथायोग्य
जगना‒ये दो बातें उपार्जनकी हैं । यथायोग्य आहार-विहार और यथायोग्य सोना‒ये दो बातें
व्ययकी हैं । उपार्जन और व्यय‒इन दो विभागोंके लिये हमारे पास दो प्रकारकी पूँजी है‒(१)
सांसारिक धन-धान्य और (२) आयु ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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