(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीतामें आसुरी मनुष्योंके लिये आया है‒
कामोपभोगपरमा एतावदितिनिश्चिताः ॥ (१६ । ११)
‘आसुरी सम्पदावाले मनुष्य पदार्थोंका संग्रह और
उनका भोग करनेमें ही लगे रहते हैं और ‘जो कुछ है, वह इतना ही है’‒ऐसा निश्चय करनेवाले होते हैं ।’
आजकल ऐसे ही आसुरी लोगोंकी प्रधानता हो रही है ! उनका यह भाव
रहता है कि देशका चाहे नाश हो जाय, पर हम सुख भोग लें और संग्रह कर लें । वे लोग अपने सुखके लिये
अपनी सन्तानका भी नाश कर देते हैं । उनकी केवल वर्तमानके सुखपर ही दृष्टि है,
भविष्यमें भले ही दुःख पाना पड़े ! परलोकमें कितना भयंकर दुःख
पाना पड़ेगा, इसका तो कहना ही क्या है,
इस लोकमें कितना दुःख भोगना पड़ेगा,
इसकी भी परवाह नहीं है । जिसका मरना निश्चित है,
उसके भरोसे सन्तति-निरोध करा लेते हैं,
कितनी बेसमझीकी बात है ! अभी एक-दो सन्तान है,
वह अगर मर जाय तो क्या दशा होगी‒इस तरफ खयाल ही नहीं है ।
परिवार-नियोजन-कार्यक्रमसे लोगोंका चरित्र भ्रष्ट
हो रहा है । सन्तति-निरोधके कृत्रिम उपायोंका प्रचार होनेसे समाजमें व्यभिचारकी वृद्धि
हो रही है । कुँआरी लड़कियों
और विधवाओंको भी गर्भ रोकने अथवा गिरानेका उपाय मिलनेसे उनका भी पतन हो रहा है । अगर
सरकार परिवार-नियोजन करवाना ही चाहती है तो उसे लोगोंको भोगासक्तिके लिये प्रोत्साहित
न करके संयम रखने, ब्रह्मचर्यका पालन करनेके लिये प्रोत्साहित करना चाहिये । लोगोंमें
पहलेसे ही भोगासक्तिकी आग लगी हुई है, फिर नसबन्दी, निरोध आदि कृत्रिम उपायोंके प्रचारसे उस आगमें और घी डालना कहाँतक
उचित है ? अगर संयम, ब्रह्मचर्य
आदिका प्रचार किया जाय तो लोगोंका स्वास्थ्य भी सुधरेगा, वे
भोगी, प्रमादी, चरित्रहीन, अकर्मण्य
न बनकर सच्चरित्र और परिश्रमी बनेंगे,
जिससे देश भीतरसे खोखला न होकर मजबूत बनेगा । विचार करें, चरित्र मूल्यवान् है या पैसा ?
अनेक लोगोंने धर्मकी रक्षाके लिये प्राणोंका भी त्याग कर दिया
तो धर्म मूल्यवान् हुआ या शरीर ?[*]
अँग्रेजीकी एक प्रसिद्ध कहावत है‒‘धन गया तो कुछ नहीं गया,
स्वास्थ्य गया तो कुछ गया,
चरित्र गया तो सब कुछ गया ।’
चरित्र-नाशसे बढ़कर देशका और पतन क्या होगा ?
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘आवश्यक चेतावनी’ पुस्तकसे
नित्यो
धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥
(महाभारत, स्वर्गा॰ ५ । ६३)
‘कामनासे, धनसे, लोभसे अथवा प्राण बचानेके लिये भी अपने धर्मका
त्याग न करे; क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुःख अनित्य हैं
। इसी प्रकार जीवात्मा नित्य है और उसके बन्धनका हेतु (राग) अनित्य है ।’
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