(गत ब्लॉगसे आगेका)
अभिप्राय यह कि जो होता है, उसमें
तो कोई अनिष्टकी सम्भावना है नहीं, उसमें तो प्रसन्नता लानी है; क्योंकि वह भगवान्के
हाथमें है और जो हमें करना है, वह उसकी आज्ञासे करना है, उसकी आज्ञासे विरुद्ध
नहीं करना है–यह हमारा उद्देश्य है । इन दोके सिवा और कोई बात है नहीं–एक होना और
दूसरा करना । तो फिर हमारा जीवन सब-का-सब साधनामय हो गया । अब हम सब समय
मस्त रहें । किंतु हम मस्त नहीं रहते, तभी तो कहना पड़ता है–इधर लक्ष्य नहीं है, लक्ष्य हो तो ऐसे हो सकता है ।
इसलिये चौबीस घंटोंमें एक मिनट भी ऐसा नहीं, जिस
समयमें साधन न होता हो । अब बताओ, कौन-सा समय ऐसा रहा, जिसमें साधन न हो । सब समय
साधन ही हो रहा है । और अब कौन-सी प्रवृत्ति, कौन-सी क्रिया है, जो भगवान्का भजन
न हो । इससे ‘सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर’ हो जायगा । जब यह कहा है–
यत्क्षणं यन्मुहूर्तं वा वासुदेवं न चिन्तयेत् ।’
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई ।
जब तब सुमिरन भजन न होई ॥
–तब अपनी विपत्ति तो दूर हो गयी । अब विपती कहाँ रही ? सब-का-सब समय भगवान्का, सब-का-सब काम भगवान्का, सब-की-सब
वस्तुएँ भगवान्की, सब व्यक्ति भगवान्के, सब-के-सब सम्बन्ध भगवान्के और हमारी
कोई वस्तु है ही नहीं । मन भगवान्का, बुद्धि भगवान्की, शरीर भगवान्का, प्राण भगवान्के,
सब भगवान्के हैं–
त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ।’
‘आपकी वस्तु ही, प्रभो
! आपके चरणोंमें समर्पित है ।’ ऐसे होकर मस्त रहें ।
हमारी क्या है ? हमारे तो भगवान् हैं और भगवान्
हैं इसलिये आनन्द हैं । फिर मौज और मस्ती रहेगी ही ।
चिन्ता
दीनदयालको मो मन सदा अनन्द ।
भगवान् और हम दो हैं । हमारा, उनका बँटवारा हो गया । मौज-मौज हमारे हिस्से आ
गयी और चिन्ता-चिन्ता भगवान्के । तुम चिन्ता नहीं करते, मैं क्यों करू ! भगवान्
करें । भगवान् बड़े हैं, बड़े चिन्ता किया करें । भक्त नरसीजीके पत्र आया, बहुत बड़ा
चिट्ठा कि इतना-इतना सामान लाओ तो आना । पत्रमें ऊपर भगवान्का नाम लिखनेकी रिवाज अनादि
कालसे चली आ रही है । पत्र पढ़ा तो ऊपर भगवान्का नाम लिखा ही था, नरसीजी नाचने लगे–
‘पाती
तो बाँच नरसी मगन भया ।’
–लाखों-करोडोंकी वस्तु चाहिये । पत्रमें इतनी वस्तुएँ लिखीं
थी कि उनकी बात पढ़-सुनकर नरसीजी नाचने लगे और खुश हो गाये एवं गाने लगे–
ऊपर नाम लिख्यो सो तो मायरो भरसी ।
नरसीलो
तो बैठ्यो बैठ्यो भजन करसी ॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
–‘एकै साधै सब सधै’ पुस्तकसे
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