।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७४, शनिवार
सबका कल्याण कैसे हो ?



(गत ब्लॉगसे आगेका)

आपलोगोंके किसी कुटुम्बी, सम्बन्धीका कोई भी काम पत्रमें लिखा आता है तो पत्रमें ऊपर जिसका नाम होता है, उसीपर भार होता है, कहीं बालकोंपर भी कोई भार होता है ? बालक तो यही सोचते हैं–विवाह है, अच्छी बात है, हम तो मौज करेंगे, मीठा-मीठा भोजन करेंगे । अरे ! तुम तो मौज करोगे, पर पितापर कितना खर्चा होगा, पता है ? पर उनको क्या चिन्ता ?

कितनी मौज हो रही है ! कोई नरसीजीसे पूछे–तुम किसके भरोसे जा रहे हो ? भरोसा क्या ? हमारे तो भगवान्‌ भात भरेंगे । तुम भी चलो भैया ! मीठा-मीठा भोजन करोगे । यहाँ अपने कोई चिन्ता-फिक्र है ? अपने तो मौज हो रही है ।

चिन्ता दीनदयालको मो मन सदा अनन्द ।
जायो सो प्रतिपालसी  रामदास गोविन्द ॥

हम तो सबकी चिन्ता-फिक्रसे छूट गाये । हमने तो प्रभुकी शरण ले ली । सब काम भगवान्‌का हो गया । मौज है । भगवान्‌के दरबारसे नीचे उतरे ही नहीं । ये जो छोटे-छोटे बालक–छोकरे होते हैं, उनमें कोई-कोई तो ऐसे होशियार हो जाते हैं कि माँ गोदसे नीचे रखे तो रोने लगते हैं । उन्हें बड़ी अच्छी युक्ति आ गयी । इसी तरह अपने तो भगवान्‌की गोदमें चढ़ा ही रहे, नीचे उतरे ही नहीं ।

इसीलिए नारदजीने भक्तिसूत्रमें बताया है–

तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।

सम्पूर्ण आचरणोंको  भगवान्‌के समर्पित कर दिया और भगवान्‌की विस्मृतिमें परम व्याकुलता, बड़ी घबराहट होती है; क्योंकि भगवान्‌ने गोदसे नीचे रख दिया । अतः यही निश्चय रखे कि ‘हम तो गोदमें ही रहेंगे, नीचे उतरेंगे ही नहीं । अब तुम दुःख पाओ चाहे सुख पाओ, हम क्या करें ।’  बच्‍चा तो गोदमें ही रहेगा; भार लगे तो माँको लगे, बच्‍चा क्या करे । हम नीचे उतरेंगे ही नहीं, हम तो प्रभो ! आपके चरणोंमें ही रहेंगे, आपकी गोदमें ही रहेंगे और मस्त रहेंगे । खूब मौज हो रही है । यहाँसे, सत्संगसे जाय तो खुशी-आनन्दमें ही जाय । क्या हो गया ? क्या, क्या हो गया; मौज हो गयी । ‘क्या’ तो पीछे रह गया अर्थात् ‘क्या’ का अर्थ प्रश्न होता है, सो प्रश्न तो हमारे रहा ही नहीं । भगवान्‌के यहाँ ही हम रहते हैं । भगवान्‌का ही काम करते हैं, भगवान्‌के ही दरबारमें रहते हैं । मौज-ही-मौज है । प्रभुके यहाँ आनन्द-ही आनन्द है । खुशी किस बातकी है ? तो दुःख ही किस बातका ? चिन्ता किस बातकी ? कोई है तो ‘चिन्ता दीनदयालको’ । हम तो मौज करते हैं । बस, अभीसे ही मस्तीमें रहे । चले-फिरे, उठे-बैठे–सब समय मौज-ही-मौज है । उसके तो भगवच्‍चिन्तन ही होता है । फिर भगवान्‌का चिन्तन करना नहीं पड़ता । ऐसी मस्तीमें चिन्तन स्वतः होता है । इसलिये ध्रुवजीने कहा है–‘विस्मर्यते कृतविदा कथामार्तबन्धो ।’

आपको भूलें कैसे ? आप भूल जायँ कैसे ? कैसे भूलें, बताइये । इस जन्ममें माँ थोड़ा ही प्यार करती है । जब वह माँ भी याद रहती है, तब अनन्त जन्मोंसे प्यार करनेवाली माँ कैसे भूली जाय ! सदा स्‍नेह रखनेवाले भगवान्‌ भूले जायँ ? हमारा काम तो उनके चरणोंमें पड़े रहना है, उनकी ओर मुँह करना है । हमको याद करते हैं स्वयं वे प्रभु । एक बात याद आ गयी । ध्यान देकर सुनें । हम भगवान्‌को याद नहीं करते तब भी भगवान्‌ हमको याद करते हैं । इसका क्या पता ? आप जिस स्थितिमें रहते हैं, उस स्थितिसे उबते हैं कि नहीं, तंग आते हैं कि नहीं ? कुटुम्बसे, रुपये-पैसेसे, शरीरसे, काम-धन्धेसे तंग आते हैं न ? क्यों आते हैं ? भगवान्‌ आपको याद करते हैं तब तंग आते हैं–भगवान्‌ अपनी तरफ खींचते हैं तब उस स्थितिसे तंग आ जाते हैं । फिर भी हम उसे पकड़ लेते हैं । किंतु भगवान्‌ ऐसी स्थिति रखना नहीं चाहते किसी जीवकी कि वह भोगोंमें, रुपयोंमें, कुटुम्बमें फँसे । अर्थात् ऐसी कोई स्थिति नहीं जहाँ ठोकर न लगे । ऐसी कोई स्थिति हो तो आप बतायें ? ठोकर तभी लगती है, जब भगवान्‌ हमें विशेषतासे याद करते हैं कि अरे ! कहाँ भूल गया तू ? मुझे याद कर । मुझको छोड़कर कहाँ भटकता है ? पर हम फिर फँसते हैं । भगवान्‌ यदि हमें याद नहीं करते तो हमें सुखकी इच्छा कभी नहीं रहती क्योंकि परम सुखस्वरूप, परम आनन्दस्वरूप तो भगवान्‌ ही हैं । यह सुखकी इच्छा, भगवान्‌की इच्छा होती है, यह भगवान्‌ हमें याद करते हैं, अपनी ओर खींचते हैं, पर वे जबरदस्ती नहीं करते ।

सार बात यह है कि सभी काम भगवान्‌के हैं और सभी समय भगवान्‌का है, सभी व्यक्ति भगवान्‌के हैं और सभी वस्तुएँ भगवान्‌की हैं । कोई भी क्रिया करते समय यह अनुभव निरन्तर होता रहे तो साधन निरन्तर हो सकता है, जिससे सबका कल्याण है ही ।

नारायण !    नारायण !!    नारायण !!!

–‘एकै साधै सब सधै’ पुस्तकसे