(गत ब्लॉगसे आगेका)
हे नाथ ! जो कुछ भी हमें मिलता है, आपकी कृपासे
ही मिलता है । परन्तु उसको हम अपना मान लेते हैं कि यह तो हमारा ही है । यह आपकी
खास उदारता और हमारी खास भूल है ! महाराज ! आपकी देनेकी रीति बड़ी विलक्षण है ! सब
कुछ देकर भी आपको याद नहीं रहता कि मैंने कितना दिया है ? आपके अंतःकरणमें हमारे
अवगुणोंकी छाप ही नहीं पड़ती । आपका अंतःकरणरूपी कैमरा कैसा है, इसको आप ही जानते
हो ! उसमें अवगुण तो छपते ही नहीं, गुण-ही-गुण छपते हैं । ऐसा आपका स्वभाव है !
सिवाय आपमें अपनेपनके और हमारे पास क्या
है महाराज ! आप हमें अपना जानते हैं, मानते हैं, स्वीकार करते हैं तभी काम चलता है
नाथ ! नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती ! हम जी भी नहीं सकते थे ! केवल आपकी कृपाका ही
आसरा है, तभी जीते हैं–
आप कृपा को आसरो, आप कृपा को जोर ।
आप बिना दिखे नहीं, तीन लोक में ओर ॥
कृपा करके भी आपकी कृपा तृप्त नहीं होती–‘जासु
कृपा नहिं कृपाँ अघाती’ (मानस, बालकाण्ड २८/२) ! ऐसी कृपाके कारण ही आप कृपा कर
रहे हो ! आप हमारे भीतरकी सब बातें पूर्णतया जानते हो, पर जानते हुए भी उधर दृष्टी
नहीं डालते और ऐसा बर्ताव करते हो कि मानो आपको पता ही नहीं, आप जानते ही नहीं !
आपकी कृपा ही आपको मोहित कर देती है । आप अपने ही गुणोंसे मोहित हो जाते हो । आप
अपना किया हुआ उपकार ही भूल जाते हो । अपनी दी हुई वस्तुको भी भूल जाते हो । देते तो आप हो, पर हम मान लेते हैं कि यह तो
हमारी ही है ! ऐसे कृतघ्न, गुणचोर हैं हम तो महाराज ! पूत कपूत हो चाहे सपूत हो,
पूत तो है ही । पूत कभी अपूत नहीं हो सकता । आपने गीतामें कहा है कि जीव सदासे
मेरा ही अंश है–‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’ । अतः अपना पूत जानकर कृपा करो ।
हे प्रभो ! हम आपके क्या काम आ सकते हैं ?
क्या आपका कोई काम अड़ा हुआ है, जो हमारेसे
निकलता हो ? क्या हमारी योग्यता आपके कोई काम आ सकती है ? यह तो केवल हमारा
अभिमान बढ़ानेके काम आती है । आपकी दी हुई चीजको हम अपनी मान लेते हैं और अपनी मान
करके अभिमान कर लेते हैं–ऐसे कृतघ्न हैं हम ! फिर भी आप आँख मीच लेते हो । आप उधर खयाल ही नहीं करते । आपके ऐसे स्वभावसे
ही हम जी रहे हैं !
हे नाथ ! हम आपसे क्या कहें ? हमारे पास
कहनेलायक कोई शब्द नहीं है, कोई योग्यता नहीं है । आप जंगलमें रहनेवाले किरातोंके
वचन भी ऐसे सुनते हो, जैसे पिता अपने बालककी तोतली वाणी सुनाता है–
बेद बचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुना
ऐन ।
बचन किरातन्ह के सुनत जिमि पितु बालक बैन ॥
(मानस,
अयोध्याकाण्ड १३६)
इसी तरह हे नाथ ! हमें कुछ कहना आता ही नहीं ।
हम तो बस, इतना ही जानते हैं कि जिसका कोई नहीं होता, उसके आप होते हो–
बोल न जाणूं कोय अल्प बुद्धि मन वेग तें ।
नहिं जाके हरि होय या तो मैं जाणूं सदा ॥
(करुणासागर ७४)
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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