(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमारे देशकी गायें सौम्य और
सात्त्विक होती हैं । अतः उनका दूध भी सात्त्विक होता है, जिसको पीनेसे बुद्धि
तीक्ष्ण होती है और स्वाभाव शान्त, सौम्य होता है । विदेशी
गायोंका दूध तो ज्यादा होता है, पर उन गायोंमें गुस्सा बहुत होता है, अतः उनका दूध
पीनेसे मनुष्यका स्वाभाव भी क्रूर होता है । भैंसका दूध भी ज्यादा होता है, पर दूध
सात्त्विक नहीं होता । उससे सात्त्विक बल नहीं आता । सैनिकोंके घोडोंको गायका दूध
पिलाया जाता है, जिससे वे घोड़े बहुत तेज होते हैं । एक बार सैनिकोंने परीक्षाके
लिये कुछ घोडोंको भैंसका दूध पिलाया, जिससे घोड़े खूब मोटे हो गये । परन्तु जब नदी
पार करनेका काम पड़ा तो वे घोड़े पानीमें बैठ
गये । भैंस पानीमें बैठा करती है; अतः वही स्वभाव घोडोंमें भी आ गया । ऊँटनीका दूध
भी निकलता है, पर उस दूधका दही, मक्खन होता ही नहीं । उसका दूध तामसी होनेसे
दुर्गति देनेवाला होता है । स्मृतियोंमें ऊँट, कुत्ता, गधा आदिको अस्पृश्य बताया
गया है ।
सम्पूर्ण धार्मिक कार्योंमें गायकी
मुख्यता है । जातकर्म, चूडाकर्म, उपनयन आदि सोलह संस्करोंमें गायका, उसके दूध, घी,
गोबर आदिका विशेष सम्बन्ध रहता है । गायके घीसे ही यज्ञ किया जाता है ।
स्थान-शुद्धिके लिये गोबरका ही चौका लगाया जाता है । श्राद्ध-कर्ममें गायके दूधकी
खीर बनायी जाती है । नरकोंसे बचानेके लिये गोदान किया जाता है । धार्मिक
कृत्योंमें ‘पंचगव्य’ काममें लाया जाता है, जो गायके दूध, दही, घी, गोबर और मूत्र–इन पाँचोंसे बनता
है ।
कामनापूर्तिके लिये किये जानेवाले
यज्ञोंमें गायका घी आदि काममें आते है । रघुवंशके चलनेमें गायकी ही प्रधानता थी । पौष्टिक, वीर्यवर्धक चीजोंमें भी गायके दूध और घीका मुख्य
स्थान है ।
निष्कामभावसे गायकी सेवा करनेसे मुक्ति होती है । गायकी सेवा करनेसे अन्तःकरण निर्मल होता
है । भगवान् श्रीकृष्णने भी बिना जूतीके गोचारणकी लीला की थी, इसलिये उनका नाम ‘गोपाल’ पड़ा ।
प्राचीनकालमें ऋषिलोग वनमें रहते हुए अपने पास गायें रखा करते थे । गायके दूध, घीसे उनकी बुद्धि प्रखर, विलक्षण होती थी, जिससे
वे बड़े-बड़े ग्रन्थोंकी रचना किया करते थे । आजकल तो उन ग्रन्थोंको ठीक-ठीक
समझनेवाले भी कम हैं । गायके दूध-घीसे वे दीर्धायु
होते थे । इसलिये गायके घीका एक नाम ‘आयु’ भी है । बड़े-बड़े राजालोग भी उन ऋषियोंके पास आते थे और उनकी सलाहसे राज्य चलते थे ।
गोरक्षाके लिये बलिदान करनेवालोंकी
कथाओंसे इतिहास-पुराण भरे पड़े हैं । बड़े भारी दुःखकी बात
है कि आज हमारे देशमें पैसेके लोभसे रोजाना हजारोंकी संख्यामें गायोंकी हत्या की
जा रही है ! अगर इसी तरह गो-हत्या चलती रही तो एक समय गोवंश समाप्त हो
जायगा । जब गायें नहीं रहेंगी, तब क्या दशा होगी, कितनी आफतें आयेगी–इसका अन्दाजा
नहीं लगाया जा सकता । जब गायें खत्म हो जायँगी, तब गोबर नहीं रहेगा और गोबरकी खाद
न रहनेसे जमीन भी उपजाऊ नहीं रहेगी । जमीनके उपजाऊ न रहनेसे खेती कैसे होगी ? खेती
न होनेसे अन्न तथा वस्त्र (कपास) कैसे मिलेगा ? लोगोंको शरीर निर्वाहके लिये अन्न,
जल और वस्त्र भी मिलना मुश्किल हो जायगा । गाय और उसके दूध, घी, गोबर आदिके न
रहनेसे प्रजा बहुत दुःखी हो जायगी । गोधनके अभावमें देश पराधीन और दुर्बल हो जायगा
। वर्तमानमें भी अकाल, अनावृष्टि, भूकंप, आपसी कलह आदिके
होनेमें गायोंकी हत्या मुख्य कारण है । अतः अपनी पूरी शक्ति लगाकर हर हालतमें
गायोंकी रक्षा करना, उनको कतलखानोंमें जानेसे रोकना हमारा परम कर्तव्य है ।
गायोंकी रक्षाके लिये भाई-बहनोंको चाहिये
कि वे गायोंका पालन करें; उनको अपने घरोंमें रखें । गायका ही दूध-घी खायें, भैंस
आदिका नहीं । घरोंमें गोबर-गैसका प्रयोग किया जाय । गायोंकी रक्षाके उद्देश्यसे ही
गोशालाएँ बनायी जाय, दूधके उद्देश्यसे नहीं । जितनी गोचर-भूमियाँ हैं, उनकी रक्षा
की जाय तथा सरकारसे गोचर-भूमियाँ छुड़ायी जायँ । सरकारकी गो-हत्या-नीतिका विरोध
किया जाय और सरकारसे अनुरोध किया जाय कि वह देशकी रक्षाके लिये पूरे देशमें तत्काल पूर्णरूपसे गो-हत्या बन्द करे ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
–‘जीवनका सत्य’
पुस्तकसे
|